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________________ प्रथमोन्मेषः ८७ पहले ( वन-गमन-काल में ) आपने राज्याभिषेक के समय उपस्थित हई ( राज्य ) लक्ष्मी को त्याग कर मेरे साथ वन के लिये प्रस्थान किया था। ( अर्थात् उसको उस समय आपने आश्रय न देकर मुझे अपनाया था लेकिन इस समय पुनः आपके राज्य सिंहासन ग्रहण कर लेने से ) आपको आश्रय ( रूप में ) प्राप्त कर (पूर्वकाल में मेरे ही कारण अपना परित्याग होने से उत्पन्न ) क्रोध के कारण, आपके ( राज) भवन में निवास करती हुई मुझे वह सहन न कर सकी ( अतः मुझे आपसे परित्यक्त करा दिया) ॥ ७० ॥ एतत्सातया तथाविधकरुणाक्रान्तान्तःकरणया वल्लभ प्रति सन्दिश्यते -यदुपस्थितां सेवासमापन्नां लक्ष्मीमपास्य श्रियं परित्यज्य पूर्व यस्त्वं मया साधं वनं प्रपन्नो विपिनं प्रयातस्तस्य तव स्वप्नेऽप्येतन सम्भाव्यते । तया पुनस्तस्मादेव कोपात् स्त्रीस्वभावसमुचितसपत्नीविद्वेषात्त्वद्गृहे वसम्ती न सोढास्मि । तदिदमुक्तं भवति–यत्तस्मिन् विधुरदशाविसंष्ठुलेऽपि समये तथाविधप्रसादास्पदतामध्यारोप्य यदिदानी साम्राज्ये निष्कारणपरित्यागतिरस्कारपात्रतां नीतास्मीत्येतदुचितमनुचितं वा विदितव्यवहारपरम्परेण भवता स्वयमेव विचार्यतामिति । __यह उस प्रकार ( गर्भावस्था में वन में परित्यक्त होने के कारण उत्पन्न ) करुणा से आक्रान्त अन्तःकरणवाली सीता अपने प्रियतम ( राम ) के पास सन्देश भेजती है कि-पहले ( वनवास काल में ) जो आपने उपस्थित मर्यात सेवा करने के लिये समीप आई हुई ( राज्य ) लक्ष्मी अर्थात् (राज्य) श्री का परित्याग कर मेरे साथ वन को प्राप्त हुए अर्थात् जंगल चले गये तो ऐसे (मेरे लिथे राज्यश्री का परित्याग करने वाले ) आप के लिये यह ( मेरा परित्याग करना ) कदापि सम्भव नहीं है। अपितु उसी (प्राचीन मेरे कारण अपने परित्याग से उत्पन्न ) क्रोध के कारण, नारी स्वभाव के अनुरूप सवतिया डाह के कारण वही ( जक्ष्मी ) आपके घर में मेरे निवास को सहन न कर सकी। (अतः मुझे घर से निकलवा दिया) । इस कथन का अभिप्राय यह हुआ किजो आपने उस (वन गमन से उत्पन्न) कष्टावस्था से विषम समय में भी (मुझे) उस प्रकार ( अपने साथ रखने की) कृपा का पात्र बना कर, आज साम्राज्य प्राप्त कर लेने पर (दुःखावस्था को समाप्ति हो जाने पर) बिना किसी कारण के परित्याग रूप तिरस्कार का पात्र बना दिया है, यह ( आपने ) उचित (किया है) अथवा अनुचित (किया ) है, इसका विचार व्यवहार-प्रणाली को ( भलीभांति ) जानने वाले आप स्वयं करें। ( अर्थात् आपने सर्वथा अनुचित किया है। इस प्रकार इस उदाहरण में सारे वाक्य के अर्थ को समझने पर एक अपूर्व चमत्कार की उतलब्धि होती है अतः यहाँ 'वाक्यवक्रता' हुई।)
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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