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________________ ८८ वक्रोक्तिजीवितम् ___स च वक्रमावस्तथाविधो यः सहस्रधा मिद्यते बहुप्रकारं भेदमासादयति | सहस्र-शब्दोऽत्र संख्याभूयस्त्वमात्रवाची, न नियतार्थवृत्तिः, यथा-महस्रदलमिति । यस्मात् कविप्रतिभानामानन्यानियतत्वं न सम्भवति । योऽसौ वाक्यस्य वक्रभावो बहुप्रकारः, न जानीमस्तं कीशमित्याह-यत्रालकारवर्गोऽसौ सर्वोऽप्यन्तभविष्यति । यत्र यस्मिन्नसावलकारवर्गः कविप्रवाहप्रसिद्धप्रतीतिरुपमादिलकरणकलापः सर्वः सकलोऽप्यन्तर्भविष्यति अन्तर्भावं व्रजिष्यति, पृथक्त्वेन नावस्थाप्यते । न प्रकारभेदत्वेनैव व्यपदेशमासादयिष्यतीत्यर्थः । स चालङ्कारवर्गः स्वलक्षणावसरे प्रतिपदमुदाहरिप्यते । और वह वक्रता उस प्रकार की है कि जो सहस्रधा भिन्न होती है अर्थात् बहुत से भेदों से युक्त होती है। यहाँ प्रयुक्त सहस्र ( हजार ) शब्द केवल संख्या की अधिकतामात्र का वाचक है न कि ( हजार रूप ) निश्चित अर्थ का-जैसे 'सहस्रदल' यह ( पद कमल अर्थ का वाधक है, जिसमें हजार ही दल होते हों ऐसी बात नहीं है अपितु सहस्र शब्द द्वारा संख्या की अधिकता का बोध कराया गया है कि कमल में बहुत से दल होते हैं । ) क्योंकि कवि की प्रतिभा के अनन्त होने के कारण असकी निश्चितता ( कि बस इतने ही भेद होंगे, ऐसा कहना ) सम्भव नहीं है । ( यदि कोई सन्देह करे कि ) यह वाक्य की बहुत भेदों वाली वक्रता होती है कैसी ? यही हम नहीं जानते अतः ( उसके स्वरूप बताने के लिये ) कहते हैं-जहां यह सारा अलङ्कार-समुदाय अन्तर्भूत हो जायगा । जहाँ अर्थात् जिस ( वाक्यवक्रता) में यह अलङ्कार-समुदाय अर्थात् कविप्रवाह में प्रसिद्ध अस्तित्व वाले उपमा आदि अलङ्कारों का समूह सब अर्थात् सारा का सारा अन्तर्भूत होगा अर्थात् अन्तर्भाव को प्राप्त करेगा अलग से ( उसकी) स्थिति न रहेगी। उसी (वाक्य-वक्रता ) के भेद-प्रभेद रूप से संज्ञा को प्राप्त करेगा यह अभिप्राय हुआ। और वह अलङ्कार-समुदाय अपने-अपने लक्षण के समय प्रतिपद उदाहृत किया जायगा। एवं वाक्यवक्रतां व्याख्याय वाक्यसमूहरूपम्य प्रकरणस्य तत्समु. दायात्मकस्य च प्रबन्धस्य वक्रता व्याख्यायते हम प्रकार 'वाक्यवक्रता' की व्याख्या कर वाक्य के समुदायभूत 'प्रकरण', तथा उस (प्रकरण ) के समूह रूप 'प्रबन्ध की' वक्रता की व्याख्या करने जा रहे हैं
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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