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________________ * तारण-वाणी इसका अर्थ स्पष्ट है कि-हम आप-अरहतदेव की पूजा जिस तरह आज कर रहे है ऐसी तो अनादिकाल से हजारों क्या लाखों जन्म में करी, मूर्ति के सामने तो क्या साक्षात भगवान के सामने भी की, परन्तु मोक्ष न पाई | प्राचार्य कहते हैं कि हे भाई ! निजदेव कहिए अपने आत्म-देव की पूजा किए बिना मोक्ष नहीं पाओगे । देव भगवानसौ सरूप लखें घट ही में, ऐसे ज्ञानवान भवसिंधु के तरैया है । वीरज अनंत सदा सुख को समुद्र श्राप, धरम अनंत तामैं और गुण गाइए | ऐसो भगवान-ज्ञानवान लखै घट ही में, ऐसो भाव भाय दीप अमर कहाइए । आप अबलोके बिन कछ नाही सिद्धि होत, कोटिन कलेशनि की करौ बहू करणी। क्रिया पर किए परभावन की प्रापति है, मौक्षपथ सधै नाहीं बंध ही की धरणी। कारण तें कारिज की सिद्ध है अनादि ही की, श्रात्मीक ज्ञान तैं अनंत सुख पाइए । आडवर भारतै उद्धार कहुँ भयौ नाही, कही जिनवाणी माहिं आप रुचि तारणी। ज्ञानमई मूरति में ज्ञानी ही सुथिर रहै, करै नहिं फिर कहुँ बान की उपासना | इस तरह यह ज्ञानदर्पण में बहुत विस्तार से कहा है और कहा है कि हे भाई ! 'अनुभी अनूप रसपान लै अमर हूजे ।' और अधिक कहा लों कहै । इस तरह 'जिनपूजा' का मर्म समझ कर यदि हम ऐसी जिनपूजा जो कि उपरोक्त प्रकार की बनाई गई है तब तो निश्चय समझिा कि हम इस तरह की पूजा करने से श्री कुंदकुंद स्वामी के कहे अनुमार प्रजनपूजा' के पुण्य के फल से तीन लोक के देवों द्वारा पूज्य हो सकेंगे और यदि इस तरह की जिनपूजा न करके जिस तरह की की जा रही है तो फिर तीन लोक के देवों द्वारा पूज्य होने वाली झूठी पाश को छोड़ दीजिए। ऐसा एक नहीं सभी प्राचार्यो का कहना है, सो विद्वानों से समझ लीजिए : __ अब आपके चित्त में एक बात यह उठ सकती है कि कहां इतने बड़े अरहंत भगवान जो कि अब मोक्ष में विराजमान हैं और कहां हमारी यह संसारी आत्मा जोकि कर्मा में फंमः हुई पापों में डूबी है और गगद्वेष मोह में डूब कर महान मैली है, उन भगवान की तरह इस अपनी आत्मा को कैसे मानलें और भगवान की पूजा छोड़ कर इस अपनी आत्मा की पूजा करने लगें ? भापके इस प्रश्न का समाधान आपको प्राचार्यो के कहे अनुसार किये देता हूँसवैया केई उदास रहें प्रभु कारन, केई कहैं उठि जाहि कहीं को। केई प्रनाम करैं गढ़ि मूरति, केई पहार चढ़े चढ़ छींके ॥ केई कहें असमान के ऊपर, केई कहें प्रभु हेठि जमी के । मेरो धनी (भगवान) नहिं दूर दिशान्तर, मोहि में है मोहि सूझत नीके । यह श्री कुदकुद स्वामी का कहना है जो नाटक समयसार में लिखा है।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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