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________________ ६४ ] * तारण-वाणी * सहित इन्द्र भी करते हैं। तो मानलो आज हम सभ्यक्ती हैं तब तो विनय के पात्र हैं। और हमें ''जिनपूजा' करके तीन लोक के देवों द्वारा पूज्य अरहन्त बनना है तो कैसे बनेंगे। उस मर्म को जानना है तो वह मर्म जानने के लिये 'जिन' तथा 'पूजा' इन दोनों का क्या अर्थ है यह जानें 1 जो 'जिन' का अर्थ तो आप उपरोक्त प्रकरण में समझ चुके हैं कि हमारी सम्यक्त प्राप्त आत्म ही हमारे लिये और श्री मुनिराजों को सम्यक्त प्राप्त श्रात्मा उनके लिये जिन कहलाई । एक बात दूसरा अर्थ 'पूजा' का केवल इतना ही है कि उत्तम गुण, जो गुण कि कल्याणकारी - मोक्षमार्ग में लगाकर इस आत्मा को मोक्ष पहुँचा दें उन ऐसे भगवान के गुण, मुनिराजों के, ऐलक क्षुल्लकारि प्रतिमाघारी श्रावकों के गुण तथा हमारी आपकी स्वयं की आत्मा में उत्पन्न हुआ जो सम्यक्त, कि जिस सम्यक्त के होने पर हमारे समस्त गुण कल्याणकारी होकर मोक्षमार्ग में लगा देते हैं और द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की अनुकूलता होने पर मोक्ष पहुँचा देते हैं। उन दूसरों के व अपने स्वयं के गुणों को पूज्यदृष्टि से देखना, उन गुणों की विनय करना, भक्तिभाव रखना तथा वृद्धि के लिये अथवा प्राप्ति के लिये आराधना करना, यह सब ही भेद पूजा के जानना । अत: अपनी जिनस्वरूप जो आत्मा है उसमें उत्पन्न हुआ जो सम्यक्त और उसके प्राश्रित उत्पन्न हुए सम्यक्त के जो निशंकितादि अष्टगुण तथा संवेगादि आठ लक्षण इनको कल्याणकारी जानकर इन्हें पूज्य दृष्टि से देखना, इन्हीं गुणों की विनय तथा भक्तिभाव सहित वृद्धि के लिये आराधना करते रहना और उन्हीं अपने भीतर उत्पन्न हुए सम्यक्त गुणों की संभाल के लिए बरा भावना (अनित्यादिक) सदैव भाते रहना यानी चित्त में रखना और इन्हीं अपनी आत्मा जो कि सम्यक्त गुण से विभूषित होने से 'जिन' बन गई है उस जिनपद की वृद्धि के लिये हमारी आत्म वृद्धि करते हुए जिनपद से जिनेश्वरपद अथवा जिनेन्द्रपद को प्राप्त करे, इसलिये दर्शन - विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं को प्रतिदिन प्रतिक्षण भाते रहना । बन्धुओ ! यही हमारी आपकी सच्ची जिनपूजा है । हमारी आपकी ही नहीं, यही 'जिनपूजा' श्री मुनिराजों की है। इसी को 'जिनपूजा' कहो, चाहे आत्मपूजा अथवा आत्म - सेवः कहो, सब एकार्थबाची वाक्य हैं । कुछ भी कहो । आप कदाचित कहो कि वाह, यह तो खूब बताई कि देवों के देव अरहंतदेव की सेवापूजा तो छोड़ दें और अपनी ही आत्मा की सेवा-पूजा करने लगें ! इसका समाधान यह है कि यह बात मैंने नहीं, सभी आचायों ने बताई है। इसके हजारों प्रमाण अपने जैनशास्त्रों में हैं, उन्हीं में से दो चार प्रमाण यहां देता हूँ । देवन को देव (अरहंत देव) सो तो सेवत अनादि आायौ I निज देव (अपनी आत्मा) सेए बिनु शिव न लह्तु है ।। (ज्ञानदर्पण)
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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