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________________ * तारण-वाणी* जो जिन सो आतम लखो, निश्चय भेद न रश्च । यही सार सिद्धांत का, छोड़ो सर्व प्रपंच ॥ जिनवर अरु शुद्धात्म में, किंचित् भेद न जान । ये ही कारण मोक्ष को, ध्यावो श्रद्धा ठान ॥ आतम परमातम विषै, शक्ति-व्यक्ति करि भेद । नातर उभय (प्रात्मा-परमात्मा) समान हैं, कर निश्चै तजि खेद ॥ यह श्री योगीन्द्राचार्य ने समयसार में कहा जो स्वानुभवदर्पण में है। चेतन रूप अरूप अमूरति, सिद्ध समान सदा पद मेरो । ऐसो चिदानंद याही घट में निकट तेरे, ताहि तूं विचार बार सब धंध है ॥ दोहा-तजि विभाव हूजे मगन, शुद्धातम पद मांहि । एक मोक्षमारग यहै, और दूसरो नांहि ॥ दोहा-जे विवहारी मूढ़ नर, परजै बुद्धि जीव । तिनके बाहिज क्रिया विौं, है अवलम्ब सदीव ।। ( नाटक समयसार) शुभराग में धर्म नहीं होता, केवल पुण्य का ही बंध होता है । भव्यो ! कल्याण करने के लिए ही धर्म का सेवन किया जाता है । धर्म उसे ही कहते हैं जो उत्तम सुख को प्राप्त करावे । उत्तम सुख मोक्ष में कहा गया है, स्वर्ग सुखों को उत्तम सुख नहीं कहा । वर्ग सुख तो इस जीव ने अनन्त वार भोगे फिर भी आवागमन बना रहने से मनुष्य, तिर्यञ्च तथा नारक गतियों में रुलता रहा और अब भी रुल रहा है, और रुलता ही रहेगा जब तक कि मोक्षसुख पाने वाले धर्म को धारण नहीं करेगा। मोक्ष का मूल कारण एकमात्र 'सम्यक्त्व' आचार्यों ने कहा है और हम आप भी जानते हैं इसमें किसी का मतभेद नहीं। अतः सम्यक्त्व से मोक्ष, और धर्म से सम्यक्त्व होता है । पुण्य से सम्यक्त्व नहीं होता, क्योंकि इस जीव ने पुण्य तो अनन्त बार किया जिसके फलस्वरूप भ्वर्गसुख भोगे परन्तु सम्यक्त न हुआ। निष्कर्ष यह निकला कि सम्यक्त्व और पुण्य दोनों एक नहीं दो प्रथक प्रथक् मार्ग हुये। पुण्य करते करते हमें सम्यक्त्व हो जायगा यह मान्यता न रही । ठीक इसी प्राशय को स्पष्ट करने वाला साहित्य और प्रवचन श्री कानजी स्वामी का प्रकाशित हो रहा है जो उन्होंने भगवान कुन्दकुन्द स्वामी के साहित्य-समुद्र को मथन करके 'धर्मरत्न' प्राप्त किया
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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