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________________ * तारण-वाणी * मे धर्म नहीं होता। धर्म किसी के द्वारा दिया नहीं जाता किन्तु अप ही ( आत्मा की ही ) पहिचान से धर्म होता है। ____ जिसे पूर्णानन्द अर्थान अपनी मा का पूर्णानन्द चाहिये है उसे यह निश्चित करना चाहिये कि पूर्णानन्द का स्वरूप क्या है और यह किसे प्रगट हुअा है ? जो आनन्द मैं चाहता है वह पूर्ण प्रवाधित आनन्द चाहना हूँ। अभी कोई प्रात्मा वैसे पूर्णानन्द दशा को प्राप्त हुये हैं और नन्हें पूर्णानन्द दशा में ज्ञान भी पूर्ण ही है, क्योंकि यदि ज्ञान पूर्ण न हो तो राग-द्वेष रहेगा, उसके रहने से दुःख रहेगा और जहां दुःख होता है वहां पूर्णानन्द नहीं हो सकता । इसलिये जिन्हें पूर्णानन्द प्रगट हुआ है ऐसे सर्वज्ञ भगवान हैं । उनका और वे क्या कहते हैं इसका जिज्ञासु को निर्णय करना चाहिये । इसीलिये कहा है कि 'पहलो अनज्ञान के अवलम्बन से प्रात्मा के पूर्णरूप का निणय करना चाहिये ।' इसमें उपादान की व निमिन की सन्धि विद्यमान है । ज्ञानी कौन है, सत बान कौन कहता है, यह सब निर्णय करने के लिये और निश्चय करने के लिये निवृत्ति लेनी चाहिये । चदि स्त्री कुटुम्ब लक्ष्मी का प्रेम और संसार की मचि में कमी न आये तो वह सत समागम के लिये निवृत्ति नहीं ले सकेगा । जहाँ श्रुत का अवलम्बन लेने को कहा है वहीं तीब्र अशुभ भाव का त्याग ा गया और सच्चे निमित्तों की पहचान करना भी आ गया । सुख का उपाय बान और समागम तुझे तो सुम्ब चाहिए ? यदि तुझे मुन्न चाहिये है तो पहिले यह निर्णय कर कि सुख कहां है और वह कैसे प्रगट होता है। सुख कहां है और वह कैसे प्रगट होता है, इसका ज्ञान किये बिना ( बायाचार करके यदि ) सूख जाय तब भी सुख नहीं मिलता, धर्म नहीं होता । सर्वत्र भगवान के द्वारा कथित श्रुतज्ञान के ( शासना के ) अवलंबन से यह निर्णय होता है और इस निर्णय का करना ही प्रथम धर्म है । जिसे धम करना हो वह धर्मी को पहिचानकर वे क्या कहते हैं इसका निर्णय करने के लिये सत् समागम करे। सत् समागम से जिसे भूतज्ञान का अवलंबन प्रान हुआ है कि अहो! परिपूर्ण पात्मवस्तु ही उत्कृष्ट महिमावान है, मैंने ऐसा परम स्वरूप बनत. काल में पहिले कभी नहीं सुना था-ऐसा होने पर उसे स्वरूप की रुचि जाग्रत होती है और सत्समागम का रंग लग जाता है अर्थात् उसे कुदादि या संसार के प्रति रुचि हो ही नहीं सकती। ___यदि अपनी वस्तु को पहिचाने दो अंग जाग्रत हो और उस तरफ का पुरुषार्थ ढले । मात्मा अनादिकाल से स्वभाव को भूलकर पुण्य-प.प भय परभाव रूपी परदेश में परिभ्रमण कर रहा है, स्वरूप से बाहर संसार में परिभ्रमण करते करने परम पिता श्री सर्व देव और परम हितकारी श्री परम गुरु से भेंट हुई और वे पूर्ण हित कैसे होता है यह सुनाते हैं तथा भात्मस्वरूप की पहिचान कराते हैं। अपने स्वरूप को सुनते हुए किस धर्मी को उल्लास नहीं होता ? होता ही है,
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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