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________________ * तारण-वाणी [१९७ प्रात्मस्वभाव की बात सुनते ही जिज्ञासु जीवों को प्रात्मा की महिमा पाती ही है कि-अहो ! अनंतकाल से यह अपूर्व ज्ञान नहीं हुआ; और स्वरूप के बाहर परभाव में भ्रमित होकर अनंतकान तक दुखी हुआ। यदि यह अपूर्व ज्ञान पहिले किया होता तो यह दुःख नहीं होता। इस प्रकार स्वरूप की चाह जाग्रत होकर रस आये, महिमा जागे और इस महिमा को यथार्थतया रटते हुए स्वरूप का निर्णय करे । इस प्रकार जिसे धर्म करके सुखी होना हो उसे पहिले श्रतज्ञान काशास्त्रज्ञान का अवलंबन लेकर आत्मा का निर्णय करना चाहिये । भगवान की श्रुतज्ञान रूपी डोरी को दृढ़तापूर्वक पकड़ कर उसके अवलवन से अर्थात् जिनवाणी रूप शास्त्रों के अवलंबन से उनके मर्म को स्वाध्याय द्वारा समझ कर स्वरूप में पहुंचा जाता है। श्रुतज्ञान के अवलंबन का अर्थ क्या है ? सच्चे शास्त्रज्ञान का ही रस है, अन्य कुश्रुतज्ञान का (खोटे शास्त्रों के ज्ञान का) रस नहीं है। संसार की बातों का तीब्र रस टल गया है और श्रतज्ञान का तीन रस आने लगा है। इस प्रकार श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञान स्वभाव आत्मा का निर्णय करने के लिये जो तैयार हुआ है उसे अल्पकाल में प्रात्मप्रतीति होगी। संमार का तीन मोह-रस जिसके हृदय में घुल रहा हो उसे परम शांत स्वभाव की बात समझने की पात्रता ही जाग्रत नहीं होती। यहां जो 'श्रुन का अवलम्बन' शब्द दिया है सो वह अवलम्बन स्वभाव के लक्ष से है, पीछे न हटने के लक्ष से है । जिसने ज्ञानस्वभाव श्रात्मा का निर्णय करने के लिये शास्त्र का अवलम्बन लिया है वह आत्मस्वभाव का निर्णय करता ही है । उसके पीछे हटने की बात शास्त्र में नहीं ली गई है। संसार की रुचि को घटाकर आत्म-निर्णय करने के लक्ष से जो यहाँ तक आया है उसे शात्रज्ञान के अवलम्बन से निर्णय अवश्य होगा। यह हो हो नहीं सकता कि निर्णय न हो । सच्चे साहूकार के बही-खाते में दिवालियापन की बात ही नहीं हो सकती, उसी प्रकार यहाँ ( सच्चे शाखों में ) दीर्घ संसारी की बात ही नहीं है। यहां तो सच्चे जिज्ञासु जीवों की ही बात है । सभी बातों की हां में हां भरे और एक भी बात का अपने ज्ञान में निर्णय न करे ऐसे ध्वजपुच्छ' जैसे चंचल चित्त वाले जीवों की बात यहां नहीं है । यहां तो निश्चल और स्पष्ट बात है । जो अनंत कालीन ससार का अन्त करने के लिये पूर्ण स्वभाव के लक्ष से प्रारम्भ करने को निकले हैं ऐसे जीवों का प्रारम्भ किया हुआ कार्य फिर पीछे नहीं हटता, ऐसे जीवों को ही यहां बात है। यह तो अप्रतिहत (निरावाध ) मार्ग है । पूर्णता की लक्ष से किया गया प्रारम्भ ही वास्तिक प्रारम्भ है। पूर्णता के लक्ष से किया गया प्रारम्भ पीछे नहीं हटता, पूर्णता के लक्ष से पूर्णता अवश्य होती है। जिस ओर की रुचि उसी ओर की रटन एक को बात ही पुन: पुन: ( अदल बदल कर ) कही जा रही है, किन्तु रुचिवान जीव को
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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