SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी [१६३ संवरपूर्वक जो निर्जरा है सो मोक्षमार्ग है । शुभाशुभास्रव के निरोध रूप संवर और शुद्धोपयोग रूप योगों से संयुक्त ऐसा जो भेदविज्ञानी जीव, अनेक प्रकार के अंतरंग-बहिरंग तपों द्वारा उपाय करता है, सो निश्चय से अनेक प्रकार के कर्मों की निर्जरा करता है । यह निर्जरा भविपाक या सकाम होती है । सिद्धान्त यह है कि अनेक कमों की शक्तियों को नष्ट करने में समर्थ बहिरंग अन्तरंग तपों से बुद्धि को प्राप्त हुआ जो शुद्धोपयोग है सो भाव निर्जरा है। (पंचास्तिकाय पृष्ठ २०६ ) हे भव्य प्राणी ! तू ज्ञान में नित्य रत अर्थात् प्रीति वाला हो ज्ञान में ही नित्य सन्तुष्ट हो और ज्ञान में ही तृप्त हो, ऐसा करने से तुझे उत्तम सुख-मोक्षसुख होगा, आनन्द का भोग होगा। प्रभावना का अर्थ है प्रगट करना, उद्योत करना आदि। इसलिये जो निरन्तर अभ्यास से अपने ज्ञान को प्रगट करता है बढ़ाता है, उसके प्रभावना अंग होता है । अनुक्रम से आत्मा के भाव शुद्ध होना सो निर्जरा तत्व है और सर्व कर्म का प्रभाव होना सो मोक्ष तत्व है। संवर तत्व में आत्मा की शुद्ध पर्याय प्रगट होती है और निर्जरा तत्व में प्रात्मा की शुद्ध पर्याय की वृद्धि होती है। इस शुद्ध पर्याय को एक शब्द से शुद्धोपयोग कहते हैं, दो शब्दों से कहना हो तो संवर और निर्जरा कहते हैं, और तीन शब्दों से कहना हो तो 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र' कहते हैं । संवर और निर्जरा में पांशिक शुद्ध पर्याय होती है। जहां जहां संवर और निर्जरा का कथन हो वहां वहां ऐसा समझना कि आत्मा की पर्याय जिस अश में शुद्ध होती है वह संवर-निर्जरा है। जो विकल्प राग या शुभ भाव है वह संवरनिर्जरा नहीं। परन्तु इसका निरोध होना और आंशिक अशुद्धि का खिर जाना-झड़ जाना सो संबर-निर्जरा है। अज्ञानी जीव ने अनादि से मोक्ष का वीज रूप संवर निर्जरा भाव कभी प्रगट नहीं किया और इसका यथार्थ स्वरूप भी नहीं समझा । संवर-निर्जरा स्वयं धर्म है। __ संवर का लक्षण-"प्रास्रवनिरोधः संवरः ॥" अर्थ-मानव का रोकना सो संबर है अर्थात् मात्मा में जिन कारणों से कर्मों का पासव होता है उन कारणों को दूर करने से कर्मों का आना रुक जाता है, उसे संवर कहते हैं । संवर धर्म है। जीव जब सम्यग्दर्शन प्रगट करता है तब संवर का प्रारम्भ होता है । सम्यग्दर्शन के बिना कभी भी यथार्थ संवर नहीं होता । सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिये जीव, अजीव,
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy