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________________ १६४] * तारण-वाणी * श्रामब, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन सात तत्त्वों का स्वरूप यथाथ रूप से विपरीत अभिप्राय रहित जानना चाहिये। ___सम्यग्दर्शन प्रगट होने के बाद जीव के प्रांशिक वीतराग भाव और आंशिक सराग भाव होता है। वहां ऐसा समझना कि वीतराग भाव के द्वारा संवर होता है और सराग भाव के द्वारा शुभ बंध होता है। शुभास्त्रव से पुण्य बंध होता है । जिस भाव से बंध हो उसी भाव के द्वारा संवर नहीं होता। आत्मा के जितने अश में सम्यग्दर्शन है उतने अश में संवर है और बंध नहीं, किन्तु जितने अश में राग है उतने अश में बंध है, जितने अश में सम्यग्ज्ञान है उतने अश में संवर है, बंध नहीं, किन्तु जितने अश में राग है उतने अश में बंध है, तथा जितने अश में सम्यक्चारित्र है उतने अंश में संवर है बंध नहीं; किन्तु जितने अश में राग है उतने अश में बंध है। ( 'पुरुषाथ सिद्ध्युपाय' गाथा २१२-२१४) तीर्थंकर नाम कर्म का बंध चौथे गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के छठे भाग पर्यंत होता है और तीन प्रकार की सम्यक्त की भूमिका में यह बंध होता है। वास्तव में ( भूतार्थनय सेनिश्चयनय से ) सम्यग्दर्शन म्वयं कभी भी बंध का कारण नहीं है, किन्तु इस भूमिका में रहे हुये राग से ही बंध होता है । तीर्थकर नाम कर्म के बंध का कारण भी सम्यग्दर्शन की भूमिका में रहा हा राग बंध का कारण है । जहाँ सम्यग्दर्शन को आस्रव या बंध का कारण कहा हो वहाँ मात्र उपचार ( व्यवहार ) से कथन है ऐसा समझना, इसे अभूतार्थ नय का कथन भी कहते हैं। सम्यरज्ञान के द्वारा नय विभाग के स्वरूप को यथार्थ जानने वाला ही इस कथन के आशय को अविरुद्ध प से समझता है। सम्यग्दृष्टि जीव दो प्रकार के हैं-सरागी और वीतरागी। उनमें से सराग-सम्यग्दृष्टि जीव राग सहित हैं ( शुभ राग सहित होते हैं ) अत: राग के कारण उनके कर्म प्रकृतियों का प्रास्रव होता है और ऐसा भी कहा जाता है कि इन जीवों के सराग सम्यक्त्व है, परन्तु यहाँ ऐसा समभना कि जो राग है वह सम्यक्त्व का दोष नहीं किन्तु चारित्र का दोष है । जिन सम्यग्दृष्टि जीवों के निर्दोष (आत्म ) चारित्र है उनके वीतराग सम्यक्त्व कहा जाता है। वास्तव में ये दो जीवों के सम्यग्दर्शन में भेद नहीं किन्तु चारित्र की (आत्मचारित्र की ) अपेक्षा से ये दो भेद हैं। जो सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र के दोष सहित हैं अर्थात जिनके प्रात्मचारित्र में शुभ राग का समावेश है उनके सराग सम्यक्त्व है ऐसा कहा जाता है और जिस जीव के निर्दोष चारित्र है अर्थात् जिनके आत्मचारित्र में वीतरागता का समावेश है उनके वीतराग सम्यक्त्व है ऐसा कहा जाता है। इस
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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