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________________ १६२] * तारण-वाणी करने पर मिथ्यात्व प्रादि भाव रुकता है, इसीलिये सबसे पहले मिथ्यात्व भाव का संबर होता है। यही से धर्म का प्रारम्भ होता है। पात्रत्र के रोकने पर प्रात्मा में जिस पर्याय की उत्पत्ति होती है वह शुद्धोपयोग है या यों समझो कि शुद्धोपयोग के द्वारा ही मानव रुकता है और संवर भाव होता है। अंधकार जाने पर प्रकाश पाता है ऐसा नहीं, प्रत्युत प्रकाश आने पर अंधकार चला जाता है. इसी तरह शुद्धोपयोग रूप संवर भाव होने पर प्रास्त्रब रुक जाता है ऐसा जानना। उपयोग स्वरूप शुद्धात्मा में उपयोग का रहना-स्थिर होना सो संवर है। उपयोग स्वरूप शुद्धात्मा में जब जीव का उपयोग रहता है तब नवीन विकारी पर्याय (मानव ) रुकती है अर्थात पुण्य-पाप के भाव रुकते हैं । इस अपेक्षा से संवर का अर्थ जीव के नवीन पुण्य-पाप के भाव को रोकना होता है। आत्मा में निर्मल भाव प्रगट होने से प्रात्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप में पाने वाले नवीन कर्म सकते हैं, इसीलिये कर्म की अपेक्षा से संवर का अर्थ होता है नवीन कर्म के प्रास्रव का मकना । १-प्रास्त्रत्र का तिरस्कार करने से जिसको सदा विजय मिली है ऐसे संवर को उत्पन्न करने वाली ज्योति, २-पर रूप से भिन्न अपने सम्यक् स्वरूप में निश्चल रूप से प्रकाशमान, चिन्मय उज्वल और निज रस से भरी ज्योति का प्रगट होना सो संवर है। जिन पुण्य पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना । तिन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥ शुभाशुभ भाव को रोकने में समर्थ जो शुद्धोपयोग है सो भाव संवर है। भाव संवर के आधार से नवीन कर्म का निरोध द्रव्य संवर है। सात तत्वों में संवर और निर्जरा यह दो तत्व मोक्षमार्ग रूप हैं । शुद्धोपयोग का अर्थ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र है । संबर तथा निर्जरा दोनों एक ही समय में होते हैं, क्योंकि जिस समय शुद्ध पर्याय (शुद्ध परिणति ) प्रगट हो उसी समय नवीन अशुद्ध पर्याय (शुभाशुभ परिणति ) रुकती है सो संवर है और इसी समय आंशिक अशुद्धि दूर हो शुद्धता बढ़े सो निर्जरा है। तात्पर्य यह कि–अशुद्ध ( शुभाशुभ ) परिणति मानव-बंध की कारण है और शुद्ध (प्रात्मभावना रूप) परिणति संवर और निर्जरा को कारण है।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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