SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी * [१५९ बंध के पांच कारण कहे, उनमें अंतरंग भावों की पहचान करना चाहिये। यदि जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग के भेदों को वाह्य रूपसे जाने किन्तु अंतरंग में इन भावों की पहचान न करे तो मिथ्यात्व दूर नहीं होता। अन्य कुदेवादिक के सेवन रूप गृहीत मिथ्यात्व को तो मिथ्यात्व रूप से जाने किन्तु जो अनादि अगृहीत मिथ्यात्व है उसे न पहचाने तो मिथ्या मान्यता दूर नहीं होती। इसलिये अंतरंग भाव को पहचान कर उस सम्बंधी अन्यथा मान्यता दूर करनी चाहिये । ___ अनादि से जीव के मिध्यादर्शन रूप अवस्था है। समस्त दुःखों का मूल मिध्यादर्शन है। जीव के जैसा श्रद्धान है वैसा पदार्थ-स्वरूप न हो और जैसा पदार्थ-स्वरूप न हो वैसा ये माने, उसे मिध्यादर्शन कहते हैं। यह जीव जहां शरीर धारण करता है वहां किसी अन्य स्थान से पाकर पुत्र, स्त्रो, धनादि को स्वयं प्राप्त होता है। यह जीव उन सबको अपना जानता है, परन्तु ये सभी अपने अपने आधीन होने से कोई प्राते कोई जाते और कोई अनेक अवस्था रूप से परिणमते हैं । क्या यह अपने आधीन है ? ये जीव के आधीन नहीं हैं तो भी यह जीव उन्हें अपने प्राधीन मानकर खेदखिन्न होता है । यही इसका मिथ्यादर्शन है । और वस्तुस्वरूप को यथार्थ जानना और वैसा ही यथार्थ श्रद्धान मन में रखना सो ही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन ही सुख का मूल है । यह जीव देव गुरु शास्त्र अथवा धर्म का जो अन्यथा कल्पित स्वरूप है उसकी तो प्रतीति मान्यता करता है, किन्तु उनका जो यथार्थ स्वरूप है उसका ज्ञान नहीं करता, यही इस जीव का मिथ्यादर्शन है, मिथ्याज्ञान है। जगत् की प्रत्येक वस्तु अर्थात् प्रत्येक द्रव्य-संयोग अपने अपने प्राधीन परिणमते हैं, किन्तु यह जीव ऐसा नहीं मानता और यों मानता है कि स्वयं उसे परिणमा सकता है अथवा किसी समय आंशिक परिणमन करा सकता है। यही इसका विपरीत अभिप्राय-मान्यता मियादृष्टिपना है, मिथ्यादर्शन है, मूल में भूल है। मिध्यादृष्टि जीव तो रागादि भावों के द्वारा सर्व द्रव्यों को, समस्त संयोगों को अपनी इच्छा के अनुकूल परिणमने की भावना व प्रयत्न करता है, किन्तु ये सर्व द्रव्य संयोग जीव की इच्छा के आधीन नहीं परिणमते । इसीलिये इसे आकुलता होती है। यदि जीव की इच्छानुसार ही सब कार्य हों, अन्यथा न हों तो ही निराकुलता रहे, किन्तु ऐसा तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि किसी द्रव्य का परिणमन हमारे आधीन नहीं है । इसलिये हमारे रागादि भाव दूर हों तो ही निराकुलता होती है, अन्यथा नहीं।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy