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________________ १५८ ] * तारण-वाणी * wer जीवों को दुःख से पीड़ित देखकर उन पर दया भाव से उनके दुःख दूर करने की भावना गृहस्थ अवश्य करे, किन्तु उनके प्रति भक्ति भाव न करे; क्योंकि ऐसों के प्रति भक्ति भावना करना सो उनके पाप की अनुमोदना है। कुपात्र को योग्य रीति से ( करुणाबुद्धि द्वारा ) आहारादि का दान देना चाहिये । ( मो० शा० पृष्ठ ६१७ ) वीतरागता तो सम्यक् चारित्र के द्वारा प्रगट होती है और व्रत तो शुभाभव है, इसलिये व्रत सच्चा त्याग नहीं, किन्तु जितने अंश में वीतरागता हो वहां उतने अश में सम्यक् चारित्र प्रगट हो जाता है और उसमें शुभ-अशुभ दोनों का स्वभावतः त्याग है । मिथ्यादर्शन ( पांच मिध्यात्व ) अविरति ( बारह अत ) प्रमाद ( पन्द्रह प्रमाद ) कषाय ( पच्चीस कषाय ) इन सन्तान के सद्भाव में योग ( त्रियोग के पन्द्रह भेदों ) द्वारा कर्मों का आव होकर बंध होता है । जब कि द्वादश तप, तेरह विधि चारित्र, दश धर्म तथा बाईस परिषहजय, इन ५७ से कर्मों का संबर होता है व निर्जरा होती है । उपरोक्त श्रव तथा संवर के भेदों को हमें भली भांति जानना चाहिये । धर्म में प्रवेश करने की इच्छा करने वाले जीव तथा उपदेशक 'मिथ्यादर्शनाऽविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः' जब तक इस सूत्र का मर्म नहीं समझते तब तक एक बड़ी भूल करते हैं । वह इस प्रकार है-बंध के पांच कारणों में पहले मिध्यादर्शन दूर होता है और फिर अविरत आदि दूर होते हैं, तथापि वे पहले मिध्यादर्शन को दूर किये बिना अविरत को दूर करना चाहते हैं और इस हेतु से उनके माने हुये बाल व्रत आदि ग्रहण करते हैं तथा दूसरों को भी वैसा उपदेश देते हैं। पुनश्च वे ऐसा मानते हैं कि बालव्रत ( अज्ञान व्रत ) आदि ग्रहण करने से और उनका पालन करने से मिथ्यादर्शन दूर होगा। उन जीवों की ( विद्वान् भावक व मुनियों की ) यह मान्यता पूर्ण रूपेण मिथ्या है, इसलिये इस सूत्र में 'मिथ्यादर्शन' पहले कहा है । मिथ्यादर्शन चौथे गुणस्थान में दूर होता है, अविरत पांचवें छट्टो गुणस्थान में दूर होता है, प्रमाद सातवें गुणस्थान में दूर होता है, कषाय बारहवें गुणस्थान में पूर्णतया नष्ट होती हैं और योग चौदहवें गुणस्थान में नष्ट होते हैं । वस्तुस्थिति के इस नियम को न समझने से अज्ञानी पहले बाल व्रत ( अज्ञान - अणुव्रत महात्रत ) 'गीकार करते हैं और उसे धर्म मानते हैं। इस प्रकार अधर्म को धर्म मानने के कारण उनके मिथ्यादर्शन भर अनंतानुबंधी कषाय का पोषण होता है । इसलिये जिज्ञासुओं को वस्तुस्थिति के इस नियम को समझना खास विशेष आवश्यक है। इस नियम को समझकर असत उपाय छोड़कर पहले मिथ्यादर्शन दूर करने के लिये सम्यग्दर्शन प्रगट करने का पुरुषार्थ करना योग्य है ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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