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________________ १६०] * तारण-वाणी* मिथ्यात्व के दो भेद हैं-अगृहीत मिथ्यात्व और अगृहीत मिथ्यात्व | अगृहीत मिथ्यात्व अनादिकालीन है। प्रश्न-जिस कुल में जीव जन्मा हो उस कुल में माने हुये देव, गुरु, शास्त्र सच्चे हों और यदि जीव लौकिक रूढ़ि दृष्टि से सच्चा मानता हो तो उसके गृहीत मिथ्यात्व दूर हुआ या नहीं ? ____ उत्तर-नहीं, उसके भी गृहीत मिथ्यात्व है, क्योंकि सच्चे देव, सच्चे गुरु, और सच्चे शास्त्र का स्वरूप क्या है तथा कुदेव कुगुरु और कुशास्त्र में क्या दोष है, इसका सूक्ष्म दृष्टि से विचार करके सभी पहलुओं से उसके गुण और दोषों का यथार्थ निर्णय न किया हो वहां नक जीव के गृहीत मिथ्यात्व है और वह सर्वज्ञ वीतराग देव का सच्चा अनुयायी नहीं है। ___ अरहन्त देव, निग्रन्थ गुरु और जैनशास्त्रों को मानने पर भी उनके स्वरूप का अपनी नवबुद्धि से निर्णय करना चाहिये । इम जीव ने पहले अनन्त बार गहीत मिथ्यात्व छोड़ा और द्रव्यलिंगी मुनि हो निरतिचार महाव्रत पाले, परन्तु अगृहीत मिथ्यात्व नहीं छोड़ा, इसीलिये संसार बना रहा, और फिर गृहीन मिथ्यात्व स्वीकार किया । वीतराग देव की प्रतिमा के दर्शन पूजनादि के शुभराग को धर्मानुराग कहते हैं, परन्तु वह धर्म नहीं है, धर्म तो निरावलम्बी है। जब देव शास्त्र गुरु के अवलम्बन से छूटकर शुद्धश्रद्धा द्वारा म्वभाव का (प्रात्मा का-आत्मस्वभाव का) आश्रय करता है तब धर्म प्रगट होता है। यदि शुभराग को धर्म माने तो उस शुभ भाव की-स्वरूप की विपरीत मान्यता होने से विपरीत मिथ्यात्व है। छट्टे अध्याय के १३ वें सूत्र की टीका में अवर्णवाद के स्वरूप का वर्णन किया है, उसका समावेश विपरीत मिथ्यात्व में होता है। बंध का मुख्य कारण तो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कपाय हैं और इन चार में भी सर्वोत्कृष्ट कारण मिथ्यात्व ही है । मिथ्यात्व को दूर किये बिना अविरति आदि बंध के कारण दूर ही नहीं होते, यह अबाधित सिद्धान्त है । जीव के सबसे बड़ा पाप एक मिथ्यात्व ही है । जहां मिथ्यात्व है वहाँ अन्य सब पापों का सद्भाव है। मिथ्यात्व के समान दूसरा कोई पाप नहीं । इसे प्रयत्नपूर्वक छोड़ना चाहिये। संसार का मूल मिथ्यात्व है और मिथ्यात्व का अभाव किये बिना अन्य अनेक उपाय करने पर भी मोक्ष या मोक्षमार्ग नहीं होता। इसलिये सबसे पहले यथार्थ उपायों के द्वारा सर्व प्रकार से उद्यम करके इस मिथ्यात्व का सर्वथा नाश करना योग्य है । अपनी स्थिति पूरी होने पर कमां की जो निर्जरा-सविपाक है । समय के पहले आत्म
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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