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________________ * तारण-वाणी * [१५७ जो जीव सुशास्त्र का मर्म जानता है वही जीव सत्यव्रत सम्बन्धी अनुवीचि भाषण अर्थात शास्त्र की आज्ञानुमार निर्दोष वचन बोलने की भावना कर सकता है। प्रत्येक मनुष्य सुशास्त्र और कुशास्त्र का विवेक करने के लिये योग्य है, अन्यथा नियम से हो जाना चाहिये । मुमुक्षु जीवों को तत्त्वविचार की योग्यता प्रगट करके यह विवेक अवश्य करना चाहिये । यदि जीव सत असत का विवेक न ममझे, न करे, तो वह सच्चा बनधारी नहीं हो सकता। (मो. शा० कानजी स्वामी ६०१). सम्यग्दर्शन धर्म रूपी वृक्ष की जड़ है, मोक्ष-महल की पहली सीढ़ी है; इसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यकपने को प्राप्त नहीं होते । अतः योग्य जावों को यह उचित है कि जसे भी बने वैसे आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझकर सम्यग्दशन रूपी रत्न से अपनी आत्मा को भूपित करे और सम्यग्दर्शन को निरतिचार बनावे। धर्म रूपी कमल के मध्य में सम्यग्दर्शन रूपी नाल शोभायमान है। निश्चय व्रत, शील इत्यादि उसकी पंखुडियां हैं। इसलिये गृहस्थों और मुनियों को इस सम्यग्दर्शन को नाल में अती. चार न लगने देना चाहिये । व्रतधारी श्रावक मरण के समय होने वाली सल्लेखना को प्रीति पूर्वक सेवन करे । इस लोक या परलोक सम्बन्धी किसी भी प्रयोजन की अपेक्षा किये बिना शरीर और कषाय को सम्यक प्रकार कृश करना सो सल्लेखना है । शरीर-व्याधि के प्रकोप से मरण के समय परिणाम में आकुलता न करना और स्वसन्मुख आत्मशांति की आराधना से चलायमान न होना ही यथार्थ काय-सल्लेखना है, और मोह, राग द्वेषादि से मरण के समय अपने सम्यग्दर्शन ज्ञान परिणाम मलिन न होने देना सो कषाय सल्लेखना है। आत्मा का स्वरूप समझने के लिये शंका करके जो प्रश्न किया जावे वह शंका नहीं किन्तु प्रशंका है। अतिचारों में जो शंका दोष कहा है उसमें इसका समावेश नहीं होता। व्रतधारी को अपने व्रत में लगे हुये दोषों के प्रति यदि खेद, पश्चाताप होता है तो वह अतिचार है, यदि दोषों में पश्चाताप न हो तो वह तो अनाचार है, व्रत का अभाव है। सत्पात्र तीन तरह के होते हैं १. उत्तमपात्र-सम्यक् चारित्रवान मुनि । २. मध्यमपात्र-व्रतधारी सम्यग्दृष्टि । ३. जघन्यपात्र-अति सम्यग्दृष्टि । ये तीनों सम्यग्दृष्टि होने से सुपात्र हैं। जो जोव बिना सम्यग्दर्शन के वाह्य त्रत सहित हो वह कुपात्र है और जो सम्यग्दर्शन से रहित तथा वाह्य व्रत चारित्र से भी रहित हों वे अपात्र हैं।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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