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________________ १५६] * तारण-वाणी* भावलिंगी मुनि सम्यग्दृष्टि होता है, उसी तरह भावलिंगी श्रावक भी सम्यग्दृष्टि होता है। भावों की ही प्रधानता है। पर द्रव्य को हितकारी या अहितकारी मानना सो मिथ्यात्व सहित राग है। पर द्रव्य चाहे शुभ रूप हों या अशुभरूप । जो अपने को या पर को पर द्रव्य कर्तृत्व मानता है वह चाहे लौकिक जन हो या मुनि जन, मिध्यादृष्टि ही है। सम्यग्दृष्टि पर द्रव्यों को बुरा नहीं जानता; वे ऐसा जानते हैं कि पर द्रव्य का ग्रहण या त्याग हो ही नहीं सकता। वह अपने रागभाव को बुरा जानता है इसीलिये सरागभाव को छोड़ता है और उसके निमित्त रूप द्रव्यों का भी सहज में त्याग हो जाता है। पदार्थ का विचार करने पर तो कोई पदार्थ पर द्रव्य भला या बुरा है ही नहीं। मिथ्यात्व भाव ही सबसे बुरा है । सम्यग्दृष्टि ने वह मिथ्या भाव तो पहले ही छोड़ा हुआ है। शल्य का अभाव हुये बिना कोई जीव हिंसादिक पाप भावों के दूर होने मात्र से व्रती नहीं हो सकता । शल्य का अभाव होने पर व्रत के सम्बन्ध से व्रतीत्व होता है, इसी लिये सूत्र में निःशल्य शब्द का प्रयोग किया गया है । पंचाणुव्रत तथा सप्त शील व्रत ( तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ) ये श्रावक के बारह व्रत हैं । जो अणुव्रतों को पुष्ट करे सो गुणत्रत तथा जिससे मुनित्रत पालन करने का अभ्यास हो वह शिक्षाप्रत है। ध्यान में रखने योग्य सिद्धांत अनर्थदण्ड नामक पाठवें व्रत में दुःश्रुति का त्याग कहा है । वह यह बतलाता है किजीवों को दुःश्रुति रूप शास्त्र कौन है और सुश्रुति रूप शास्त्र कौन है इस बात का विवेक करना चाहिए। जिस जीव के धर्म के निमित्त रूप से दुःश्रति हो, अर्थात् कुशास्त्रों की मान्यता हो उसके सम्यग्दर्शन प्रगट हो नहीं होता और जिसके धर्म के निमित्त से सुश्रुति ( सत्शाल ) की मान्यता हो उसको भी उनका मर्म जानना चाहिये । यदि उनका मर्म समझे तो ही सम्यग्दर्शन प्रगट कर सकता है और यदि सम्यग्दर्शन प्रगट करलें तो ही सच्चा अणुव्रत धारी भावक या महाव्रत धारी मुनि हो सकता है।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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