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________________ १४८] * तारण-वाणी श्रत का अर्थ है शास्त्र, वह जिज्ञासु जीवों के श्रात्मा का स्वरूप समझने में निमित्त है इसलिये मुमुक्षुओं को सच्चे शास्त्रों के स्वरूप का भी निर्णय करना चाहिये । दर्शन-विशुद्धि भावना की परिपूर्ण निर्मलता से सर्वोच्च पद तीर्थकर प्रकृति का बँध होता है, जबकि उसकी निर्मलता की न्यूनता में सातावेदनीय के भोग कराने वाले दूसरे-दूसरे उच्च पद इस जीव को प्राप्त होते हैं। दर्शन-विशुद्धि भावना हो जाने पर शेष पन्द्रह भावनायें हृदय में सद्भाव रूप से हो जाती हैं। यदि दर्शनविशुद्धि भावना प्रगट न हो तो शेष भावनायें यथार्थ रूप से हो हो नहीं सकती, व्यवहारिक रूप से भले ही हों । बिना इकाई के भागे की संख्या नहीं बनती। यही बात उत्तम क्षमा धर्म की जानना । बिना उत्तम क्षमा के शेष धर्म हो ही नहीं सकले । दर्शन-विशुद्धि भावना, उत्तम क्षमा धर्म, निःशांकित गुण, संवेगादि लक्षण, अनित्यादि भावना इत्यादि यह सब तो जंजीर के समान कड़ी की तरह एक के साथ एक प्रायः सभी बंधे रहते हैं, अर्थात् प्रथम भावना या गुण प्रगट होने पर शेष के सभी नियम से हृदय में सद्भावरूप से हो ही जाते हैं, रुकते नहीं। विशेष यह कि जिस तरह एक दीपक के प्रकाश में घर की सब चीजें दिख जाती हैं ठीक उसी तरह एक सम्यक्त होने पर उपरोक्त सभी गुणों का सद्भाव हो जाता है। "योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ।" अर्थ-भावार्थ-योग कहिए मन, वचन, काय में कुटिलता-चक्रता-जड़ता रखना और ऐसे प्रयोजन का विसंवाद करना-कहना कि जिससे दूसरों के मन, वचन काय में कुटिलतादि दूषित भावों की जाग्रति हो जाय, किसी से बुरा वचन बोलना, चित्त की अस्थिरता, कपटरूप हीनाधिक माप-तौल, पर को निंदा, अपनी प्रशंसा, किसी से ग्लानि करना, ग्लानित संकेतों से दूसरों को दुखी करना, ऐसे स्थान में मल-मूत्रादि का क्षेपण करना जिससे दूसरों को ग्लानि उत्पन्न हो, रूप की प्रशंसार्थ शरीर-अंगार तथा दूसरों के शरीर को रूपरहित करने इत्यादि की क्रिया या भाव, यह सब ही अशुभनाम कर्म के आस्रव के कारण हैं। "तद्विपरीतं शुभस्य ।" अर्थ-ऊपर से विपरीत सब अच्छाइयों का प्रयोग करना ही शुभनाम कर्म के प्राव के कारण कहे हैं।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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