SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी * [ १४९ सोलह कारण भावनायें तीर्थंकर नाम कर्म के श्राश्रव की कारण हैं। सोलहकारण भावनाओं में दर्शन विशुद्धि ही मुख्य है । इसके अभाव में अन्य सभी भावनायें हों तो भी तीर्थंकर नाम कर्म काव नहीं होता और दर्शन विशुद्धि के सद्भाव में अन्य भावनायें हों या न हों तो भी तीर्थंकर नाम कर्म का अव होता है । तीर्थंकर प्रकृति का बंध गृहस्थ तथा मुनि दोनों को ही हो सकता है, किन्तु सम्यग्दृष्टि होने पर ही होता है । सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त धर्म का प्रारम्भ अन्य किसी से नहीं अर्थात् सम्यग्दर्शन ही शुरूत इकाई है और सिद्ध दशा उसकी पूर्णता है । भात सम्यग्दृष्टि के जिस भाव से तीर्थंकर प्रकृति बंधती है वह पुण्य भाव है, उसे वे आदरणीय नहीं मानते । ( परमात्मप्रकाश पृष्ठ १६५ - २ - ५४ ) जिसे आत्मा के स्वरूप की प्रतीति नहीं उसके शुद्ध भावरूपभक्ति अर्थात् भाव-भक्ति तो होती ही नहीं, किन्तु इस सूत्र में कही हुई सत् के प्रति शुभराग वाली व्यवहारभक्ति अर्थात् द्रव्य - भक्ति भी वास्तव में नहीं होती, लौकिक भक्ति भले हो । ( मो० शा० कानजी स्वामी पृ० ५५५ ) अरिहंतों के सात भेद - १ पांच कल्याणी, २-तीन कल्याणी, ३ - दो कल्याण वाले, ४ - अतिशय केवली, ५ - सामान्य केवली, ६ - अन्तकृत केवली, ७-उपसर्ग केवली । --- केवलज्ञान तो सब का एक सा ही होता है, यह उपरोक्त भेद तो पुण्य की न्यूनाधिकता अथवा निमित्त को बताने वाले हैं। महाविदेह क्षेत्र के अलावा भरत - ऐरावत क्षेत्रों में जो तीर्थंकर होते हैं वे सभी पंचकल्याक वाले होते हैं । गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष, यह पंचकल्याण कहे जाते हैं, परन्तु यह तो केवल उनके पुण्य-वैभव का दिग्दर्शन करना है, इस दिग्दर्शन से और उनके आत्म-कल्याण से कोई सम्बन्ध ही नहीं, हम यह दिग्दर्शन करें या नहीं करें । दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा करना तथा प्रगट गुणों को छिपाना व अप्रगट गुणों को प्रसिद्ध करना सो नीच गोत्र के आश्रव के कारण हैं । एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत तक सभी तिर्यंच नारकी जीवों को नोचगोत्र, देवों को उब गोत्र तथा मनुष्यों को दोनों प्रकार के गोत्र का उदय रहता है। पर प्रशंसा, आत्म निन्दा, नम्र वृत्ति होना, मद का अभाव, यह उच्च गोत्र कर्म के आश्रव के कारण हैं ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy