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________________ * तारण-वाणी* [१४७ भाव, हिंसा से विरक्त, बुरे कार्यों से निवृत्त होना, तथा मन में जो बात है उसे सरलता से उसी के अनुसार कहना, व्यर्थ की बकवाद न करना, परिणामों में मधुरता का होना. सभी लोगों के प्रति उपकारबुद्धि रखना, परिणामों में वैराग्यवृत्ति रखना, किसी के प्रति ईर्ष्याभाव न रखना, कापोत तथा पीत लेश्या का भाव रहना, धर्मध्यान में मरण होना, ये परिणाम मनुष्यायु के कारण हैं। तप-त्याग, वैराग्य, संयम, शील दान इत्यादि शुभ भाव तथा पद्म-शुक्ल लेश्या के भाव देव आयु के कारण है। उपरोक्त चारों गतियों के कारण रूप प्रास्रव के जो भाव हैं उन्हें भली भांति समझकर नरकःयु तथा तिर्यंचायु के जो बंधकारक भाव हैं उन्हें सर्वथा ही छोड़ना चाहिये तथा मनुष्यायु और देवायु के कारण रूप जो भाव है उनका अवलम्बन रखना चाहिये । इतना ही नहीं, मनुष्य जन्म की सार्थकता तो इसमें ही है कि हम अपनी आत्मा को चारों ही गतियों से छुड़ाने का प्रयत्न करें । इसके लिये आवश्यकता है तत्त्वज्ञान की, आत्मज्ञान की और अध्यात्मग्रंथों के स्वाध्याय की। ध्यान रहे, बहुत से भाई मात्र अपनी शुभ भावनाओं के होने से अपने को सम्यक्ती मान लेते हैं, उनकी यह मान्यता भ्रमरूप है; क्योंकि भावनाओं का सम्बन्ध तो लेश्याओं से है। कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं के होने पर अशुभ भाव होते हैं और पीत, पद्म, शक्ल इन तीन शुभ लेश्याओं के होने पर शुभ भाव होते हैं। और इन छहों लेश्याओं का सद्भाव मिथ्या.. दृष्टि में भी रहता है । अशुभ भावों से अधोगति और शुभ भावों से शुभगति होती है। परन्तु संसार-भ्रमण नहीं छूटता । चागे ही गतियां संसार--भ्रमणरूप है। यदि हम अपनी आत्मा को चारों हो ग तयों के भ्रमण से छुड़ाना चाहते है तो हमें सम्यक्त की प्रानि करना चाहिये । यही कारण है कि श्री तारण स्वामी ने अपने अध्यात्मवाणी ग्रंथ में केवल वही सब विचारधाराएँ बताइ है जो कि इस आत्मा को पुण्य पाप से छुड़ाकर सम्यक्त प्राप्त कराने वाली है । मोक्ष की प्रानि करने वालों को सम्यक्त प्राप्त करना ही पहली सीढ़ी है, पुण्य प्राप्त करना पहली सीढ़ी नहीं है, ऐसा जानना चाहिये । ___मोक्ष शास्त्र अध्याय ६ पृष्ठ ५३३ में कानजी स्वामी ने कहा कि--भगवान को पर का कर्ता ठहराना भगवान का अवर्णवाद है। तब भगवान को धातु-पाषाण की मूर्ति में कल्पना करना, प्राणप्रतिष्ठा करना और मूर्ति के अंग-भंग होने पर भगवान के अंग-भंग हुए मानकर शोक करना तथा जिन आरंभों का उनके त्याग हो चुका था वे आरंभ उनके नाम पर करना. तथा वे तो मोक्ष धाम में विराजमान हैं और उन्हें गर्भ में हैं, जन्म हुआ है, ऐसा कहना पार भगवान बिन पूजा के रह गए, यह सब क्या अवर्णवाद नहीं हैं ?
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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