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________________ १४६ ] * तारण-वाणी * "सम्यक्त्वं च । " अर्थ- सम्यग्दर्शन भी देवायु के आश्रव का कारण है । अर्थात् सम्यग्दर्शन के साथ रहा हुआ जो राग है वह राग देवायु का कारण होता है। ध्यान रहे कि सम्यग्दर्शन के साथ शुभ राग ही होता है, अशुभ राग नहीं होता । सम्यग्दर्शन स्वभावतः रागरहित और अबंध रूप है । उसे राग प्रिय नहीं लगता, अतः वह अपना बल राग को दूर करने में लगाया ही करता है । उसकी वह सफलता अती से व्रती, व्रती से महात्री और महात्री से स्वरूपाचरण चारित्र की ओर बढ़ती हुई अन्त में इस आत्मा को केवलज्ञानी बनाकर मोक्ष प्राप्त करा देती है । सम्यग्दृष्टि मनुष्य तथा तिर्यंच को जो राग होता है वह वैमानिक देवायु के ही आश्रव का कारण होता है, हलके देवों का नहीं । सम्यग्दृष्टि के जितने अंश में राग नहीं है उतने अंश में आव-बंध नहीं है और जितने अंश में राग है उतने अंश में आस्रव-बंध है। मिध्यादृष्टिको किसी भी अंश में राग का अभाव होता ही नहीं, इसलिये वह सम्पूर्ण रूप से हमेशा बंध भाव में ही रहता है । मरण समय रौद्रध्यान हो तो नरकायु का आश्रव होता है, आर्तध्यान हो तो तिच आयु का और धर्मध्यान हो तो मनुध्यायु का तथा धर्मध्यान के साथ नियम संयम के भाव हों तो देवायु का श्राश्रव होता है । इसी लिये मरण समय बड़ी सावधानी रखनी चाहिये । मिथ्यादर्शन सहित हीनाचार, तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ, दुष्ट परिणाम, दूसरों को दुख देने की भावना व बंधन करने की भावना, निरन्तर घातक भाव, परवध कारक झूठ वचन, पर धन हरण, परम्नी सेवन, अधिक मैथुन, अति आरम्भ, काम भोगों की उत्तरोत्तर वृद्धि, शील सदाचार रहित स्वभाव, अभक्ष भक्षण करना - कराना, अधिक काल तक बैर रखना, महा क्रूर स्वभाव, बिना विचारे रोने कूटने का स्वभाव, देव-शास्त्र-गुरु में मिथ्या दोष लगाना, कृष्ण लेश्या और रौद्रध्यान में मरण करना, ये सब नरकायु के कारण हैं । मायाचारी से मिथ्याधर्म का उपदेश देना, बहुत आरम्भ परिग्रह में कपटयुक्त परिणाम रखना, कपट - कुटिल कम में कुशल, क्रोधी स्वभाव, शील रहित शब्द से - चेष्टा से तीन मायाचार, पर के परिणाम में भेद उत्पन्न करना, अति अनर्थ प्रगट करना, जाति कुल-शील में दूषण लगाना, विसंवाद में प्रीति रखना, दूसरों के उत्तम गुणों को छिपाना, अपने में जो गुण नहीं उन्हें बताना, नील- कापोत लेश्या, ध्यान में मरण, ये तिर्यंचायु के कारण हैं । मिध्यात्व सहित बुद्धि, विनयशीलता, भद्र परिणाम, कोमल परिणाम, श्रेष्ठ आचरणों में सुख मानना, अल्प क्रोध, गुणी जनों के प्रति प्रिय व्यवहार, थोड़ा आरम्भ - परिग्रह रखना, संतोषी
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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