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________________ - तारण-वाणी [१३१ अष्टपाहुड़ (मोक्षपाहुड़ में ) श्री कुन्दकुन्द स्वामी तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्वग्रहणं च भवति संज्ञानम् । चारित्रं परिहारः प्रजल्पितं जिनवरेन्द्रः ॥ ३८ ॥ अर्थ-तत्त्वरुचि है सो सम्यक्त्व है, तत्त्र का प्रहण है सो सम्यग्ज्ञान है, परिहार है सो चारित्र है, ऐसा जिनवरेन्द्र तीर्थकरदेव ने कहा है। निवृत्तिरूप जो अन्तरंगक्रिया अर्थात् परिणति सो ही परिहार अर्थात् चारित्र जानना। दर्शनशुद्धः शुद्धः दर्शनशुद्धः लमते निर्वाणम् । दर्शनविहीनपुरुषः न लभते तं इष्टं लामम् ।। ३९ ॥ अर्थ-जो पुरुष दर्शन करि शुद्ध है सो ही शुद्ध है जातें दर्शनशुद्ध है सो निर्वाण • पावै है, बहुरि जो पुरुष सम्यग्दर्शन करि रहित है सो पुरुष इच्छितलाभ जो मोक्ष ताहि न पावै है । इति उपदेशः सारो जन्ममरणहरं स्फुटं मन्यते यत्तु । तत् सम्यक्त्वं मणितं श्रमणानां श्रावकाणामपि ॥ ४० ॥ अर्थ-इति कहिये ऐसा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का उपदेश है सो सार है, जन्म-मरण का हरने वाला है तहां याकू जो माने हैं, श्रद्धे है सो ही सम्यक्त्व कहा है सो मुनिनि कू तथा श्रावकनि कू सर्वही कू कहा है तातें सम्यक्त्वपूर्वक ज्ञान-चारित्र कू अंगीकार करो। मदमायाक्रोधरहितः लोमेन विवर्जितश्च यो जीवः । निर्मलस्वभावयुक्तः स प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम् ॥४५॥ अर्थ--जो जीव मद, माया, क्रोध इनिकरि रहित होय बहुरि लोभ करि विशेष करि रहित होय सो जीव निर्मल, विशुद्धस्वभावयुक्त भया उत्तम सुख कू पावै है । चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः सः भवति आत्मसम्भावः । स रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः ॥५०॥ अर्थ-स्वधर्म कहिये आत्मा का धर्म है सो चरण कहिये चारित्र है, बहुरि धर्म है सो आत्मसमभाव है सर्व जीवन विर्षे समानभाव है, जो अपना धर्म है सो ही सर्व जीवनि में है अथवा सर्व जीवनि कू पाप समान मानना है । बहुरि जो आत्मस्वभाव सू रागद्वेष करि रहित है काहू ते इष्ट अनिष्ट बुद्धि नाहीं है ऐसा चारित्र है सो जैसें जीव के दर्शन शान है वैसे ही अनन्य परिणाम है जीव ही का भाव है। रागद्वेष रहित भाव ही चारित्र है।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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