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________________ १३०] *तारण-वाणी जिन माझा कहिए जिनवाणो की भावना भाने का उपदेश दिया कि जिनवाणी से ही अपनापरका स्वरूप जाना जाय है। श्री कुन्दकुन्द स्वामी का प्रत्येक वचन श्री तारण स्वामी के सिद्धांत से मिलता है, क्योंकि यही सब तो श्री तारन स्वामी ने अध्यात्म-वाणी में कहा है । अशुद्धभाव सहित बाह्य पाप करना तो नरक का कारण है ही, परन्तु बाह्य हिंसादिक पाप किए बिना केवल अशुद्ध भाव हो तिस समान है, तातै भाव में अशुभ--ध्यान छोड़ि शुभध्यान करना योग्य है। ऐसा भी जानना जो पहले राज्य पाया था सो पूर्वे पुण्य किया था ताका फल था, पीछे राज्य पाय कुभाव भये तब नरक गया । यातें आत्मज्ञान विना केवल पुण्य ही मोक्ष का साधन नाहीं है ऐसा जानना । कर्म शुभाशुभ बांधि, उदै भरमै संसार । पावै दुःख अनन्त, चारों गति में डुलि सारै ॥ काकंदीपुर का राजा सूरसेन व उसका रसोईया मांसभक्षी थे। दोनों मरण कर रसोईया तो राघौ मस्त्य भया व सूरसेन उसके पास ही तंदुल मत्स्य हुआ, तदुपरान्त मरण करि दोनों सातवें नरक गये। ___काकंदीपुर के राजा सूरसेन की तो क्या, सुभौम व ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती भी संसारी तृष्णा रूप अशुभभावों के कारण भारंभ परिग्रह के पाप-भार से तथा रावण जैसा समर्थ पुण्यवान् अशुभभावों के फलस्वरूप सातवें नरक में गया । इसी दृष्टि से-तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि में पुण्य का मूल्य नहीं, केवल एक आत्मज्ञान का हो मूल्य है जो संसार-पार करने में समर्थ है, मूलकारण है। यही कारण है जो श्री कुन्दकुन्द तथा तारण स्वामी ने बार बार यही उपदेश दिया कि भी भव्यो ! केवल पुण्य में ही संतुष्ट मत हो, मोक्ष का मूलकारण जो आत्मज्ञान उसे प्राप्त करो, जिससे संसार से छूट सको। यह पुण्य का उदय तो अनेक जन्मों में भोगा और फलस्वरूप नीची, ऊँचा सभो गतियों के सुख, दुःख भोगे किन्तु उनसे प्रात्मा का कोई काम न चला कंबल विडम्बना ही रही, ऐसा जानकर तत्त्वज्ञान की दृष्टि का उपयोग करो और उसके द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति करो।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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