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________________ १३२] * तारण-पाणी आस्रवहेतुश्च तथा भावो मोक्षस्य कारणं भवति । स तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः ॥५५॥ अर्थ-जैसें परद्रव्य विर्षे राग कर्मबन्ध का कारण पूर्वे कहा तैसा ही रागभाव जो मोक्ष निमित्त में भी होय तो भी आस्रव ही का कारण है कर्म का बंध ही करे है । रागभाव मात्मस्वभाव ते विपरीत है, आत्मस्वभाव कू जाना नाहीं । राग कू भला जाने सो अज्ञानी है। ____ भगवान महावीर के मोक्ष सिधारने पर गौतम गणधर को वियोग-जनित खेद उत्पन्न हुआ और तत्काल ही जब आत्मस्वरूप का विचार आया और जिस राग के कारण वियोग-जनित खेद हो रहा था उस राग को ( भले ही वह भगवान के प्रति शुभराग था ) भी कर्मबन्ध का कारण जानकर हेय समझा और उसे त्याग कर (आन्तरिक पश्चातापपूर्वक त्याग कर ) प्रात्मध्यान में स्थिर हुये कि उसी दिन उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। इस जैन सिद्धांत के मर्म को समझो । इस तत्त्वज्ञानदृष्टि से ही मोक्षमार्ग बनेगा, बच्चों के जैसा खेल करने से मोक्षमार्ग नहीं बनता । दूसरों की रामलीला और हम जैनियों के पंचकल्याणक नाटक में क्या अन्तर है ? कोई रश्चमात्र अन्तर नहीं। किसी हद तक तो दूसरों को रामलीला इसलिये ठीक बैठती है क्योंकि वे राज अवस्था को मानते हैं किन्तु हम तो वैराग्य अवस्था को मानने वाले हैं तब नाटक कैसा ? -सम्पादक। ध्रुवसिद्धिस्तीर्थंकरः चतुष्कज्ञानयुतः करोति तपश्चरणम् । ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणम् ज्ञानयुक्तोऽपि ॥६०॥ अर्थ-आचार्य कहें हैं देखो जाके नियम करि मोक्ष होनी है अर चार ज्ञान करि युक्त है ऐसे तीर्थंकर भी तपश्चरण करें हैं, ऐसा जानकर तपश्चरण करना योग्य है। क्योंकि तप करने से ही कर्मनिर्जरा होती है। सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति । तस्मात् यथावलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत् ॥६२॥ अर्थ-जो सुन्वक ६ भाया हुकान है सो उपसर्ग परीषहादि करि दुःखकू उपजते नष्ट हो जाय है, तातें यह उपदेश के जो योगा ध्यानी मुनि है सो तपश्चरणादि के कष्ट दुःख सहित आत्मा कू भाव । भावार्थ-तपश्चरण का कष्ट अंगीकार करि ज्ञान कू' भावै तो परीपह आये ज्ञानभावना ते चिगै नाहीं, तातें शक्तिसारू दुःख सहित ज्ञान कू भावना । सुख ही में भावै दुःख पाये व्याकुल होय तब ज्ञानभावना न रहै; तातें यह उपदेश है ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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