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________________ १२०] * तारण-वाणी - योगीजन नित ओम् नमः का, शुद्ध ध्यान ही धरते हैं। 'सोह' पद पर चढ़ कर ही वे, प्राप्त सिद्धपद करते हैं। 'ओम् नमः' जपते जपते जो, निज स्वरूप में रम जाता । वही देवपूजा करता है, पंडित वह ही कहलाता ॥३|| सम्यक देवार्चनाःसम्यक् भाचार सम्यक विचार जिस ज्योतिर्मय का माराधन, करते त्रिभुवनपति अरहंत । लोकालोक प्रकाशित करता, जो विखेर रविरश्मि अनन्त ।। द्रव्य-राशि को हस्तमलकवत, करता जो नित व्यक्त ललाम । उस पुनीततम महा मोम् को, करता हूँ मैं प्रथम प्रणाम ||१|| शुद्ध श्रेष्ठ सद्भाव-पुंज हो, जिस पद का कंचन धन है । निराकार निष्कल निमूर्त, शुचि शून्ययुक्त जिसका तन है। स्वयंशुद्ध श्रुतज्ञान तत्त्र का, जो असीम भण्डार महान । उस विशुद्ध भोम् ही श्री का, करता हूँ मैं प्रतिपल ध्यान ॥२॥ आदि अनादि मलों से मैं भी, हो जाऊँ तुम सा स्वाधीन । इसी सिद्धि को छूने को मैं, होता हूँ तुममें तल्लीन । पंचदीप्ति ! सम्यक्त्वसूर्य तुम, मैं हूँ क्षुद्र अनल का कण । मुझको भी अनुरूप बनालो, हे परिपूर्ण ! तुम्हें वन्दन ।।३।। त्रिभुवन के जो तिलक कहाकर, शोभा देते हैं छविमान । भवन अनन्त चतुष्टय के जो, केवलज्ञान निधान महान् ।। ऐसे उन देवाधिदेव की, रज मस्तक पर धरता हूँ। परज्योति अरहन्त प्रभू को, नमस्कार मैं करता हूँ ॥४॥ जो अनन्तदर्शन के धारी, ज्ञान वीर्य के पारावार । निखिल विश्व जिनके नयनों में, श्रुतसमुद्र के जो आगार ॥ निराकार, निमूर्ति, जगत्रय, करता जिनका गुणवादन । मुक्ति-रमावर उन सिद्धों का, करता हूँ मैं अभिवादन ॥५॥
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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