SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी [१२१ जिनके केवल-ज्ञान-मुकुर में, युगपत दिखते तीनों लोक । कर्मों का पावरण हटा जो, शरच्चन्द्र से बने निशोक ।। सम्यक् विधि से व्यक्त किन्तु जो, अशरीरी भव्यक्त अरूप । नमस्कार करता मैं उनको, स्वीकृत करें वीर चिद्रूप ।।६।। सिद्ध-शिला जगमगा रहे हैं, कोटि कोटि जो केवनधाम । उस पुनीततम सिद्धराशि को, मेरे सविनय कोटि प्रणाम । तीन तरह के धर्मपात्र हैं, देव, शाख, गुरु सौख्य सदन । उनकी भी मैं पूर्ण भक्ति से, करता हूँ इस क्षण वन्दन ॥७॥ गुरु वन्दनापरिग्रहों की दलदल से जो, दूर दूरतम रहते हैं। एक सूत्र के अम्बर को भी, आडम्बर जो कहते हैं । जिनका ज्ञान समस्त जगत में, छिटकाता रहता आलोक । प्रतिभाषित होते रहते हैं, जिसमें नितप्रति लोकालोक ॥८॥ रत्नत्रय से आलोकित हैं, जिनके अन्तरतम के देश । सारभूत शुद्धात्मतत्व का, करते जो नितप्रति निर्देश । धर्म-शुक्ल ध्यानों से जिनने, किया पूर्णवश मत्त-गजराज । जिनको ज्ञायक बना ज्ञान ने, पाया नव वसन्त का साज |६| आर्त, रौद्र भ्रमरों को हैं जो, चंपक के से निर्मम फूल । दर्शनमोह नष्टकर जिनने, ध्वंस किये भव-भव के शून ।। निजस्वरूप में दृढ़ होकर जो, करते भव-भव का कंदन । ऐसे जगद्पूज्य सद्गुरु का, करता हूँ नितप्रति वंदन ॥१०॥ शास्त्र वन्दनाश्री जिनेन्द्र के हृदय-कमल में, जो सम्यक् विधि से आसीन । दृश्यमान होते हैं जिसमें, श्रोम् ही श्री नित्य नवीन ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy