SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी* [११९ भोम् पंच परमेष्ठी मंडित, श्रोम् ऊर्ध्वगति का धारी । केवलज्ञान-निकुञ्ज ओम् है, ओम अमर ध्रुव अविकारी ॥१॥ जगत पूज्य अर्हन्त जिनेश्वर, जिसका देते नव उपदेश । साम्यदृष्टि सर्वज्ञ सुनाते, जिसका घर-घर में सन्देश ।। जो भचक्षु-दर्शन-चखगोचर, जो चित चमत्कार संपन्न । ओंकार की शुद्ध वंदना, करती वही ज्ञान उत्पन्न ||४|| ओंकाररूपी वेदान्त ही है, रे तत्त्व निर्मल शुद्धात्मा का । ओंकार रत्नत्रय को मंजूषा, ओंकार ही द्वार परमात्मा का । ओंकार ही सार तत्त्वार्थ का है, ओंकार चैतन्य प्रतिमाभिराम । ओंकार में विश्व, ओंकार जग में, ओंकार को नित्य मेग प्रणाम ||१|| इस ब्रह्मरूपी निज प्रात्मा का, काया बराबर स्वच्छन्द तन है। मल से विनिर्मुक्त, है यह धनानंद, चैतन्य संयुक्त तारनतरन है ।। जो इस निरंजन शुद्धात्मा के, शंकादि तज कर बनते पुजारी। वे ही सफल हैं निज आत्मबल में, वे ही सुजन हैं सम्यक्त्वधारी ॥३॥ कैसा है 'ओम्', सर्वोच्च उत्तम भावों से परिपूर्ण है । परमब्रह्मस्वरूप और आनन्दरूप है । अमूर्त-श्राकार रहित है । पंच परमेष्ठी के गुणों कर मंडित अर्थात् शोभायमान है । अमर, ध्रुव, अविकारी और केवलज्ञानमय ऊर्ध्वस्वभावी है। ऐसे ओंकार की शुद्ध-वंदना ( पवित्र भावों से की हुई वंदना ) ज्ञान को (आत्मज्ञान को कि जो आत्मज्ञान वैराग्य उत्पन्न करता है) उत्पन्न करता है। ऐसी ओंकारस्वरूप चैतन्यप्रतिमा जोकि घर-घर में शरीराकाररूप से विराजमान है, उस ऐसी आनन्दघन तारनतरन स्वभावी जो आत्मा उसका जो पुजारी है सो ही सम्यक्ती है-आत्मबल में सफल है । बस यही श्री तारनस्वामी का मूलमंत्र है-इकाई है। सम्यक देव का स्वरूप और उसकी पूजा जिन्हें वस्तु के सतूचित-ज्ञायक, या निश्चयनय का है ज्ञान । वही अनुभवी पारखि करते, निज-स्वरूप की सत् पहिचान ।। अन्तम्तल आसीन आत्मा, हो है अपना 'देव' ललाम । आत्म-द्रव्य का अनुभव करना, ही है प्रवल प्रणाम ||२||
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy