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________________ ११८ ] * तारण-वाणी * कूल हैं । के फूल हैं ।।२४३|| " जिसके हृदय सम्यक्त्वरूपी, सलिल जाके अर्पित न करते वे अदेवों को, हृदय जो मन्दिरों की मूर्तियों को मानते भगवान हैं । वे जीव करते हैं असभ्य, अशुभ कर्म महान् हैं | पाषाण को, जड़ को अरे, जो देव कहकर मानते I वे र अनन्तानन्त युग तक धूल जग की छानते ||३१०|| मिध्यात्व मायाचारिता के, जो अगाध निधान है । ही अचेत देव को कहते अरे भगवान हैं ॥ इन पत्थरों के देवताओं के' जो बिते जाल हैं । फँसती है मिध्यादृष्टि जीवों की मिथ्यादेवों को यह मानव नित्य देवों के ढिंग जाकर मिया माया में फँसकर यह बनता और इसी से भव-भव फिर यह बनता अपने देव बनाता | उनको शीश झुकाता ॥ " श्रवृत पुजारी । उनमें माल हैं ||३११॥ अवृत पुजारी ॥ दुर्गतिधारी ॥१६॥ लोकमूढ़ता का बन जाता है जो जीव पुजारी | देवमूढ़ता भी आ करती, उसके सिर असवारी ॥ शेष नहीं पाखण्डमूढ़ता, भी फिर रह पाती है । और कि यह राशि उसे फिर दुर्गति दिखलाती है ||२८|| पंडित पूजा (तारण त्रिवेणी प्रथमधारा ) देव, किन्तु देवत्वहीन जो, वे 'देव' कहलाते है । वही 'गुरु' जड़ जो गुरु बनकर, झूठा जाल बिछाते हैं । ऐसे इन 'देव' अगुरों की पूजा है मिध्यात्व महान । जो इनकी पूजा करते वे, भव-भव में फिरते अज्ञान ||२४|| ओम् का स्वरूप और उसकी महिमा : ओम् रहा है और रहेगा, सतत उच्च सद्भावागार । परमब्रह्म, आनन्द ओम् है, श्रोम् अमूर्त शून्य - श्राकार ॥
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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