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________________ * तारण-वाणी* [११७ तीर्थ दिवालय देव जिन, यों भाषे सब मूढ़। तन मन्दिर 'जिनदेव' जिय ! ज्ञानी जानें गूढ ॥४४॥ कितना स्पष्ट मूर्ति का खण्डन योगीन्द्राचार्य ने किया है कि जिन योगीन्द्राचार्य के योगसार, परमात्मप्रकाशादि अनेक प्रमाणीक ग्रन्थ जैन समाज में सैद्धान्तिक एवं उच्चकोटि के माने जाते है । फिर भी जैन समाज कहां भूल गई ? इसका आश्चर्य के साथ खेद भी है। सम्यक् आचार सम्यक विचार- (ग्रन्थ से) जिन मूढ पुरुषों पर, कुसंगति का अकाट्य प्रभाव है। जिनके हृदय में राज्य करता, भेद-ज्ञान प्रभाव है ।। व देव-सी करते अदेवों की, सतत .. .. ...अाराधना । नर्क-स्थली या तिर्यगगति पा, दुःख वे सहते घना ॥६१।। यह ही नहीं कि प्रदेव को, सतदेव कहना भूल है । परिपक्व इस अज्ञान से, होती अरे भव-भूल है । जड़-पत्थरों के दर्शनों से, कर्म ही बंधते नहीं। उनका पुजारी नर्क तज, जग में न थल पाता कहीं ॥६॥ जिस ओर सर्व विनाश की, विकराल दावा जल रही । जिनके वदन से प्रलयकर, गिरि-तुल्य जाल निकल रही । जो नर असत् को सत्य कह, जाता कहीं इस ओर है । एकेन्द्रियों में जन्म ले वह, कष्ट सहता घोर है ॥६॥ जो नर कुदृष्टी हैं, न जिनके पास भेद-विज्ञान है । जो नित कुदेव अदेव के, करते सुविस्तृत गान है । उनसे नहीं होती बिलग, संसार की क्रीड़ा-स्थली । वे नित नया जीवन-मरण ले, छानते जग की गली ॥६॥ चैतन्यता से हीन जो, अज्ञान जड़ स्वमेव हैं । उनको बना आराध्य ये नर, कह रहे ये देव हैं ।। अन्धों को अन्धेराज ही यदि, स्वयं पथ दिखलायेंगे । तो है सुनिश्चित वे पथिक जा, कूप में गिर जायेंगे ॥६॥ जड़ वन्तु की आराधना क्या ? रे निरा मूढत्व है। अगणित मलों की भीति पर, जिसका बना अस्तित्व है।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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