SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० ] * तारण-वाणी # I की नहीं है। तथा बंध वैमी परिणति बाहर दिखाई देती है। तात्पर्य यह कि अनन्तानुबंधी कषायों के रहते हुये भी बाहरी प्रवृत्ति में जो सब प्रकार के भेद दृष्टिगोचर होते हैं वे छहों लेश्याओं का सद्भाव भव्य, अभव्य सभी जीवों में रहता है। इसलिये लेश्याओं के भेद से ही सब भेद दिखाई देते हैं । लेश्याओं के भेद से सम्यक्त - मिथ्यात्व अथवा कषायों का भेद न जानना चाहिये। दूसरी एक यह बात कि लेश्याओं में शक्ति पुण्य-पाप बंध करने भर की है, कर्म - निर्जरा करने हुये पुण्य-पाप कर्मों में स्थिति व अनुभाग करने की शक्ति कषायों में है । प्रयोजन यह कि मंत्र कषाय या धार्मिक परिणति अथवा दान-पुण्य करने मात्र से हम यह न समझ लें कि हमारे भीतर अतानुबंधी कपायों व मिध्यात्व का अभाव हो गया है और जबतक अनंतानुबंधी कषायें व मिध्यात्व नहीं छूट जाता है, तब तक संसार भ्रमण छूटता नहीं। कोई ऐसा माने कि भगवान में धर्म में शुभराग तथा दान-पुण्य करते हुये धीरे-धारे हमारा संसार भ्रमण छूटता जा रहा है यह भ्रम है । क्योंकि गग, बंच का ही कारण है, निर्जरा का नहीं। अविपाकनिर्जरा से हो संसार - भ्रमण छूटता है और यह सम्यक्त से ही होती है । सभ्यक्त तब होता है जबकि मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषायें छूट जायें। सारांश यह कि - मिध्यात्व के छूटने पर यह जीव मिध्यात्व गुणस्थान से निकल कर दूसरे गुणस्थान में व कषायों (अनंतानुबंधी) के छूटने पर ही तीसरे मिश्र गुणस्थान में होता हुआ चौथे अत्रतसम्यक्त गुणस्थान में आने पर ही 'सम्यक्ती' होता है । मात्र दान-पुण्य या धार्मिक क्रियाओं से ही अथवा जाति-सम्प्रदाय से ही व कषायों की मंदता से ही हम अपने को सम्यक्ती न मान लें । अतः मिध्यात्व तथा अनंतानुबंधी कषायों को छोड़ने का हमें पुरुषार्थ करना है, व इस मर्म को समझना है । क्योंकि बिना मम के समझे छोड़ना भी कैसे बन सकता है । मिध्यात्व के पांच भेद कहे हैं, किन्तु वस्तुतः तो एक यही भेद है कि वस्तु का जो यथार्थ स्वरूप है उसको और का और मानना, जैसे संसार में अपना कुछ भी नहीं पर शरीर, स्त्री, पुत्र, धनादि को अपना मानना इत्यादि भेद से पांच भेद यह हैं (१) एकांत मिध्यात्व - अपेक्षा को न समझकर एक ही नय से मान बैठना । (२) विनय मिध्यात्व - कुदेव, श्रदेव को देव मानकर, कुगुरु, अगुरु को गुरु मानकर तथा कुशास्त्रों को धर्मशास्त्र मानकर विनय करना । (३) विपरीत मिध्यात्व - हिंसा में धर्म मानना, पाप क्रियाओं को धर्म क्रिया मानना । (४) संशय मिध्यात्वतों में अथवा कर्म सिद्धांत की बातों में संशय रखना जैसे कि कौन देख भाया कि आत्मा है या नहीं है, नर्क स्वर्ग हैं या नहीं हैं, इत्यादि । (५) अज्ञान मिध्यात्व - प्रात्मज्ञान की प्राप्ति न करना, यही अज्ञान मिध्यात्व है । संसार
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy