SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी [ १११ की सब बातों का ज्ञान करके चाहे धुरंधर विद्वान् बन जाओ परन्तु एक पात्मज्ञान के बिना अचान मिध्यात्वी ही रहोगे और इसके रहते तक ऊपर के सब ही मिथ्यात्व रहेंगे बाहर से, और बाहर से नहीं तो भीतर से । और यदि पात्मज्ञान हो गया तो पाँचों ही मिथ्यात्व समूल नष्ट हो जायेंगे अनंतानुबंधी चार कषाएँ-क्रोध, मान, माया, लोभ इनकी परिणति का प्रात्मा में गहरा चिपटाव रहना, लेश्याओं के कारण इन चारों के दिखावे में तो बहुत ज्यादा कमी बढ़ी दिखाई देगी परंतु भीतर पूरा अस्तित्व रहेगा ही। अतएव पांचों मिथ्यात्व व इन चारों कषायों को भीतर से छूटना चाहिये तभी हम मिथ्यात्व गुणस्थान से बाहर निकल सकते हैं, अन्यथा नहीं । अप्रत्याख्यान चार कषाएँ-जब यह जीव चौथे अवतसम्यक्त गुणस्थान में आकर सम्यक्तो हो जाता है तब ये कषाएँ हमें त्याग वैराग्य लेने से रोकती हैं, और प्रात्मा को ऐसा पुरुषार्थहीन मा रखती हैं कि सधेगा नहीं । यद्यपि आत्मा में संसार की असारता दिख गई है, चौरासी के दुखों से भयभीत हो गई है, मोक्ष की कामना क्षण-क्षण रहने लगी है, वस्तुस्वरूप का भान होने लगा है, त्याग वैराग्य के आनंद का स्वाद आने लगा है, घर प्रहस्थी से उदासी हो गई हैकब छूट निकलें यह भावना रहने लगी है परन्तु हिम्मत नहीं पड़ती और यह कषाएँ, कहीं लोक-- लाज, कहीं नहीं सधने का भय, कहीं स्नेह का बंधन और कहीं शरीर का सुखियापना दिखाकर आगे बढ़ने नहीं देती है। अत: हमें इन कषायों को बातों को न मानकर आत्मपुरुषार्थ से आगे बढ़ना चाहिये । यही इन कषायों के जीतने का उपाय है। जिस तरह क्षुद्र पुरुषों का हमारे अच्छे कामों में बाधा डालने का स्वभाव होता है और यदि हम अपना काम करते हुए बढ़ते ही जाते है तो वे अपने आप चुप रह जाते हैं, बैठ जाते है । तात्पर्य यह कि इन कषायों को जीतने पर ही हम त्यागी व्रती होकर पाँचवें गुणस्थान देशत्रत में आ सकते हैं और अणुत्रतों या ग्यारह प्रतिमाओं का पालन कर सकते हैं। विशेष यह कि जब तक यह आत्मा मिथ्यात्व गुणस्थान में अनंतानुबंधी कषायों के आधीन रहती है तब तक तो बिलकुल पराधीन होने से उन कपायों का मुकाबला-सामना करने में असमर्थ रहती है; जैसे काल कोठरी में बन्द हुआ बंदी। कदाचित् उस बन्दी से कोई पुरुपार्थ की बात करता है तो उसे वह पुरुषार्थ की बात प्रिय तो लगती है परन्तु फिर भी निकल भागने से अपने को लाचार ही पाता है। परन्तु चौथे गुणस्थान वाली सम्यक्ती आत्मा काल कोठरी से छूट गई है अब तो वह मात्र नजरबन्द के जैसी है और उसमें यह साहस हो गया है कि वह अप्रत्याख्यान कषायों का सामना कर सके और करतो भी है तथा समय पाकर विनयशील भी हो जाती है। इस तरह जय-पराजय, जय-पराजय उसके भीतर चलता ही रहता है । और जहाँ जय का डंका बजाकर त्याग-वैराग्य का मार्ग ले लेती है वहां यह चारों कषाय सर्वथा पराजित हो जाते हैं। और वह आत्मा वैराग्यवृत्ति बनाकर त्यागी (अणुव्रती ) हो जाती है। ध्यान रहे कि त्यागी होने के बाद मुनि होने में अभी एक समुद्र बीच में सामने पायगा उसका
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy