SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ranworn inwwwner on............................ * तारण-वाणी. [१०९ ..................................... . बारहवाँ क्षीणकषाय-एक क्षायिक सम्यक्त तथा दूसरा शुक्लध्यान-एकत्त्ववितर्क-अवीचार तेरहवाँ सयोगकेवली- एक केवलज्ञान, एक केवलदर्शन, एक शुक्ललेश्या, एक तीसरा शुक्लध्यान ( सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ) सत्य मन वच २, अनुभय २. औदारिककाय २, कार्माण १ यह ७ योग, ७ आश्रव । चौदहवाँ प्रयोगकेवली--योग ०, लेश्या ०, श्राश्रव • तथा तेरह व चौदहवें में कषाय ०, चौथा व्युपरतक्रियानिवर्ति शुक्लध्यान होना है। ५ मिथ्यात्व+१२ अवत+२५ कषाय+१५ योग=५७ आश्रव । नोट-पांच मिथ्यात्व छूटने पर ही दूसर गुणस्थान में आने से ५० श्राश्रव रह जाते है । व चार अनंतानुबंधी कषायों के छूटने पर मिश्र में आता है। पच्चीस कषायें भाचायों ने कषायें पच्चीस कहीं, उन पर विचार अनन्तानुबंधी चार (क्रोध, मान, माया, लोभ ) कपायें तो मिथ्यात्वगुणवर्ती सभी चराचर पटकायिक जीवों में रहती ही हैं । अर्थात तीन मिथ्यात्व और ये चार कषायें मिलकर ही अक्षयानंन जीवों को अनादिकाल से इस चतुर्गति चौरामी लाख योनि-संसार में भ्रमण करा रही है। य ही सम्यक्त की घातक हैं। इनके रहने सम्यक्त का उदय नहीं होता। इनको छोड़ने की भं शक्ति केवल सैनी पंचेन्द्री जीव में होती है बाकी एकन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय जीवों नक में तो छोड़ने की शक्ति ही नहीं । अत: जो सैनी पंचेन्द्रिय जीव पांच मिथ्यात्व ( एकांत, विनय, विपरीत, संशय, अज्ञान ) को छोड़े तब ही मिथ्यात्व गुणस्थान से निकल कर दूसरे सासादन गुणस्थान में आता है, नहीं तो नहीं । और जब यह मिथ्यात्व छूटे तब कहीं उसमें सामर्थ्य होती है कि वह अनंतानुबंधी कषायों को छोड़ सके । मिथ्यात्व के रहते अनंतानुबंधी कषायें नियम से रहती ही है। अब यह जो जीवों में परिणामों का भेद दिखाई देता है कि कोई तीवकषायी, कोई मंदकषायी, कोई लोभी, कोई दानी, कोई धर्मात्मा, कोई पापी, इसी तरह पशु पक्षियों में कोई कर, कोइ सरल, कोई मांसाहारी, कोई निरामिषभोजी, ये सब भेद लेश्याओं के कारण से जानना। क्योंकि मिथ्यात्व गुणस्थान में भी छहों लेश्याओं का सद्भाव है। जिस जीव के जब भी जिस लेश्या का योग होता है
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy