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________________ १०८] * तारण-वाणी विक मुनि नहीं, मात्र भेषधारी है। वैक्रियकऋद्धि, धर्मोपदेश, आहार विहार का उपयोग इसी गुणस्थान में ही होता है इसके आगे के गुणस्थान बारहवें तक के ध्यान अवस्था के हैं, जो ७ से १२ तक में यह कुछ नहीं होता है। हां तप के प्रभाव से ऊपर के गुणस्थानों में ऋद्धि-सिद्धि भले ही हो जाय परन्तु उसका उपयोग इसी छठवें गुणस्थान में ही होगा । यही कारण है कि पांचवें में योग ! और सातवें में योग : होते हैं जबकि इसमें योग ११ हो जाते हैं । ___ सातवां अप्रमत्त-इसमें आहार संज्ञा का अभाव हो जाता है तथा पाते, शैद्रध्यान के ८ भदों का सर्वथा अभाव होकर मात्र धर्मध्यान के जो चार भेद उनका ही सद्भाव रह जाता है। बाकी सब बातों का सद्भाव छठवें गुणस्थान के जैसा ही जानना । यह गुणस्थान स्थिर नहीं होता । ध्यान के पुरुषार्थ से आगे बढ़े तो आगे बढ़े अन्यथा छठवां सातवां चढ़ता उतरता हुआ ही रहता है। हां यह अवश्य है कि इस गुणवर्ती जीव को छठवें को अपेक्षा यह सातवां गुणस्थान अधिक प्रिय होता है। अत: छठवें में आ जाने पर भी पुन: पुन: प्रयत्न इसी में आने का करता है। यही गुणस्थान मुनि की शोभाजनक है। ___ आठवों अपूर्वकरण-इसमें मात्र शुक्ल लेश्या ही रहती है। व पहला शुक्लध्यान 'प्रथ. क्त्ववितर्कवीचार' रहता है। सामायिक, छेदोपस्थापना ये दो संयम, उपशम, क्षायिक सम्यक्त इन दो सम्यक्त का सद्भाव होता है। यहीं से यदि क्षपकश्रेणी बन गई तो बेड़ा पार हो गया और यथाक्रम चढ़ते हुए केवलज्ञानी हो जाता है यदि कदाचित उपशमश्रेणी ही रही तो ग्यारहवें और छठवें में चढ़ाव उतार ही होता रहेगा । इस चढ़ाव उतार में आदिनाथ भगवान को १००० वर्ष लग गये, भगवान महावीर को १२ वर्ष लगे, बाहुबलि को एक वर्ष लगा जबकि भरत जी को क्षपकश्रेणी माढी और ४८ मिनट में केवलज्ञानसूर्य का प्रकाश हो गया। यह ध्यान रखो कि-उपशमश्रेणी वाला एक क्षण में ही अपने आत्मपुरुषार्थ से लाग लग जाए तो क्षपकश्रेणी वाला हो जाता है किंतु क्षपकश्रेणी पर आए बिना केवलज्ञान किसी को भी नहीं होता यह अनिवार्य है । नौवाँ अनिवृत्तिकरण-इसमें ४ संज्वलन, ३ वेद, ७ कषायें, मैथुन, परिग्रह ये दो संज्ञा, रह जाती हैं । आहार, भय इन दो संज्ञाओं का प्रभाव हो जाता है । दशवाँ सूक्ष्मसांपराय-यहां वेद का अभाव, एक संज्वलन लोभकषाय का सद्भाव, एक सूक्ष्मसाम्पराय संयम, एक परिग्रह सू० लो) संज्ञा, दश भाव द्वार ( योग १ कषाय ) व शेष उपरोक्त ही होते हैं। ग्यारहवां उपशांतकषाय-यहां कषाय का प्रभाव, यथाख्यातसंयम, संज्ञा का प्रभाव, नौ योग, नौ आश्रव रह जाते हैं।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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