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________________ * तारण-वाणी [१०७ लेश्याओं का सद्भाव अवश्य है। उपयोग भी ३ कुज्ञान और चक्षु० अचक्षुदर्शन इस तरह ५ ही रहते हैं (१२ में)। तात्पर्य यह कि इसमें थोड़ी सी अच्छाई यदि है तो लेश्याओं भर में है कि यदि हम शुभलेश्या रख सकें तो पुण्यबंध कर सकते हैं सो वह भी पापानुबंधीपुण्य होगा कि जो चढ़ाकर नियम से गिरा ही देता है, क्योंकि सम्यक्त के बिना पुण्यानुबंधीपुण्य नहीं होता। चौथा अविरतसम्यक्त गुणस्थान-इसमें चार अनंतानुबंधी कषायें नहीं रहतीं, तीन कुज्ञान न रहकर तीनों सुज्ञान हो जाते हैं। उपशम, वेदक, क्षायिक ये तीनों सम्यक्त व अवधिज्ञान इसमें हो सकता है। सद्भाव छहों लेश्याओं का है परन्तु सुज्ञान होने से शुभ लेश्याओं को बल अधिक मिलता है । यदि वह हठात् अशुभ लेश्याओं का उपयोग न करे तो इस स्थान में १० ध्यानों (४ आर्त, ४ रौद्र, १ आज्ञा, १ अपाय वि०) का सद्भाव है अर्थान आज्ञाविचय और अपायविचय धर्मध्यान कर सकता है। प्राज्ञाविचय धर्मध्यान के यह चार पाए-पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ, रूपातीत हैं । यह भव्यजोव के ही होता है, वह स्त्री हो या पुरुष ( सद्भाव तीनों वेद का है ), इसमें तीनों सुज्ञानोपयोग व च० अ० अ० इस तरह छह उपयोग होते हैं । ५७ आश्रवों में ४६ आश्रव और सबसे बड़ा लाभ यह है कि ५८ लाख योनियों का गमन छूटकर मात्र २६ लाख योनियों में ही गमन रह जाता है। यह चारों गतियों में हो सकता है, किन्तु सैनी पंचेन्द्रिय जीव के ही। पांचवां देशवत-यह मनुष्य और पशु सैनी पंचेन्द्रिय में ही होता है. इसमें अनन्तानुबंधी व अप्रत्याख्यान ये ८ कषायें नहीं रहती, भाव संयमासंयम रहने लग जाता है, तीन शुभ लेश्याओं का ही सद्भाव रह जाता है । उपरोक्त १० ध्यानों के साथ विपाकविचय मिलकर ११ ध्यानों का सद्भाव है । श्राश्रव ३७ तथा ग्यारह प्रतिमाओं का इसी गुणस्थान में पालन होता है। यदि अनन्तानुबंधी व अप्रत्याख्यान कषायें व अशुभ लेश्याओं का सद्भाव है तो वह सच्चा प्रतिमा. धारी श्रावक नहीं, भेषमात्र ही जानना । छठवां प्रमत्तगुणस्थान-यह मुनि अवस्था का ही है ( जबकि श्रायिका, क्षुल्लक, ऐलक यह पांचवें गुणस्थानवर्ती ही हैं ), यह मनुष्य मात्र के ही होता है । इसमें ६ कषाएँ व ४ संज्वलन इस तरह १३ कषायें ही सद्भाव रूप से रहती हैं। मनपर्ययज्ञान हो सकता है, सामायिक संयम, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि ये तीन संयम इसमें होते हैं। इसमें चारों धर्मध्यान व इष्टवियोग अनिष्टसंयोग, पीड़ा चितवन ये तीन पाए प्रार्तध्यान के इस तरह ध्यान ७ का सद्भाव है। इसमें आश्रव द्वार २४ हो रह जाते हैं। चारों रौद्रध्यान व निदानबंध नामक आतध्यान का सर्वथा अभाव है। अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान इन बारह कषायों का सर्वथा अभाव है, असंयम भाव का सर्वथा अभाव है, तीनों खोटी लेश्याओं का सर्वथा अभाव है । तात्पर्य यह कि प्रभाव वाली यदि कोई भावनाएँ मुनि में हैं तो वह इस गुणवर्वी आत्मा न होने से वास्त
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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