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________________ १०६ ] तारण - वाणी पुत्र का हृदय तिलमिला गया व बोला पिताजी आप तो इतने धर्मात्मा, इतने जोर से लकड़ी नहीं मारना थी, पिता बोला तुम बड़े धर्मात्मा, मन्दिर का धरम घर दुकान में काम नहीं जाता । पुत्र ने कहा कि पिताजी धरम तो उसे ही कहते हैं कि जो हर घड़ी साथ में रहे, इतना कहकर त्यागी होकर घर से ही चला गया, धन्य है, इसे कहते हैं ज्ञान व धर्मात्मापना । प्रयोजन यह कि बिना शास्त्रस्वाध्याय के मनुष्य भले ही जीवनभर पूजा करे या कोई भी क्रियाकाण्डों को करता रहे उनमें धर्मात्मापना नहीं होता। यही कारण है कि सभी जैनाचायों आत्मकल्याण के लिये एकमात्र शास्त्रस्वाध्याय का ही उपदेश किया है तथा श्री तारण स्वामी ने तारण समाज में शास्त्र की मान्यता कराई और दूसरे आडम्बरों से छुड़ाया; क्योंकि परिणामों की पवित्रता से ही आत्मकल्याण होता है, जो पवित्रता एकमात्र शास्त्रस्वाध्याय व शास्त्र उपदेश श्रवण करने से ही होती है। अतः प्रत्येक मनुष्य जो अपना आत्मकल्याण करना चाहते हों उन्हें शास्त्रस्वाध्याय की प्रतिज्ञा ले लेना चाहिए, शास्त्रस्वाध्याय ही सच्ची देवपूजा है। क्योंकि श्री श्ररहंतदेव तो मोक्ष पधार गये उन्हें हमारे द्वारा पूजा कराने की रचमात्र भी आवश्यकता नहीं। हमें अपनी आत्मा का कल्याण करना है इसके लिये हमें अपनी आत्मा की सेवा-पूजा करना है, सेवा पूजा से यह न समझें कि हम अपने सामने अष्टद्रव्य का थाल रखकर पूजा के मन्त्रों को पढ़ें या दूसरों से पढ़वावें । आत्म-पूजा का अर्थ यह है कि हमारी आत्मा में जो शांति - समता, उत्तमक्षमादि गुण हैं उनकी रक्षा व वृद्धि करना, आत्मा में भरा हुआ जो श्रानन्दामृत उसे पान करना, व्रत, नियम, शील, संयम, सामायिक, स्वाध्याय करना और अपनी आत्मा की तरह सबकी आत्मा को समझना, दान, पुण्य परोपकारादि की सदैव भावना रखते हुए हर समय चित्त में उदासीनता बनी रहने को अनित्यादि बारह भावनाओं को तथा अपना कर्त्तव्य समझने को सोलहकारण भावनाओं को भाते रहना, सम्यकूदर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इनकी आराधना करते रहना, इन सबका नाम ही आत्मपूजा है - देवपूजा है । मनुष्य इस देवपूजा को भूल जाने से ही कठोर परिणामी हो गया जैसा कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है। अतएव हे भाइयो ! दूसरे मानें चाहे न मानें तुम्हें तो श्री कुन्दकुन्द व तारन स्वामी की आज्ञानुसार शास्त्र स्वाध्याय करके प्रतिदिन देवपूजा यानी श्रात्मपूजा नियम से करना चाहिये तभी सम्यक्ती बन सकोगे । चौदह गुणस्थान मिध्यात्व गुणस्थान में - धर्मध्यान होता ही नहीं, आर्त्त, रौद्र का ही सद्भाव है इसमें सुज्ञान होता ही नहीं, तीन कुज्ञानों का ही सद्भाव है और असंयमभाव ही रहता है । हां बद्दों
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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