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________________ * तारण-वाणी [१०३ अपने को श्री कुन्दकुन्दाम्नायी तेरहपंथी दिगम्बर जैन मानते हैं तो उनके ही शानों की बात मानना चाहिये; वह चीज जो कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने सखी और कल्याण करने वाली जिस तरह से बताई हो उसी तरह से मानना ही उनका आम्नायी कहला सकता है अन्यथा नहीं। हाँ, श्री कुन्दकुन्द स्वामी के रचे हुए जो-समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुइ, द्वादशानुप्रेक्षा यह सात ग्रंथ देखने में आते हैं जो यह सभी छप भी गये हैं, यदि इनमें कहीं भी प्रतिमा पूजन या दर्शन का उल्लेख हो तो बराबर सबको मान्य करना चाहिये। श्री तत्वार्थसूत्र जिसे जैन समाज सुनने भर से ही महान-पुण्य व एक उपवास का फल मानती है उसमें भी प्रतिमा का कोई जिक्र हो या समर्थन हो तो बताइए और मानिये । इसी तत्त्वार्थसूत्र की विस्तृत टीका जोकि बाबू जगरूपसहाय एटा वालों ने १८ वर्ष में लिखी है, जिसका मूल्य उस सस्ते समय में २५) था जो अब तो १००) होगी, उसमें कहीं जिक्र हो तो देख लीजिये। उन्होंने तो हमारे सामने अच्छे बड़े बड़े विद्वान् श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धांतशास्त्रो, श्री पं० वंशीधर जी सिद्धांतशास्त्री आदि अनेक विद्वानों से भरी सभा में वि० सं० १९८८ में कहा था कि जो यह कहा जाता है कि नन्दीश्वर द्वीप में प्रकृतिम चैत्यालय व प्रतिमा हैं यह बात विल्कुल असत्य और निराधार है, सिद्धांतशास्त्रों में इस बात का कोई प्रमाण नहीं है। और बुद्धि से विचारो तो अकृतिम प्रतिमायें हो ही नहीं सकतो, क्योंकि भगवान की प्रतिमा इससे यह स्पष्ट हुमा कि पहिले भगवान हुए, तब वाद में उनकी प्रतिमा बनी, तब बताइए कि वह प्रकृतिम कहां रहो, यह समझ लना तो बिल्कुल मोटो बात है, हर कोई साधारण आदमी भी समझ ले । एक कुन्दकुन्दाचार्य ही नहीं और भी किन्हीं प्रामाणिक आचार्यों के सिद्धांत ग्रंथों में जब यह प्रतिमापूजन नहीं मिलती है अथवा श्री तारण स्वामो को नहीं मिली तभी उन्होंने इसे अमान्य किया। स्वाध्याय का माहात्म्य ही सर्वोपरि है अन्झयणमेव झाणं पंचेदियणिग्गहं कसायं पि । तत्तो पंचमयाले पवयणसारमासमेव कुज्जाहो ॥१५॥ अर्थ-प्रवचनसार (जिनागम) का अभ्यास, पठन-पाठन, चितवन-मनन और वस्तुस्वरूप का विचार ही ध्यान है । जिनागम के अभ्यास से हो इन्द्रियों का निग्रह, मन का वशीकरण और कषायों का उपशम होता है, इसलिये पंचमकाल में भरतक्षेत्र में एक जिनागम का ही अभ्यास करना
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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