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________________ १०२] * तारण-वाणी जैन विद्वानों का मत है। क्योंकि एक दफा भी फूलचन्द्र जी सिद्धांतशास्त्री महोदय ने मुझे बताया था कि प्रतिमा का प्रचार ७ वी ८ वीं शताब्दि से ही हुआ है जो एक ऐसा अनुभव श्री कुंदकुंद म्वामी की इस गाथा ३५ से झलकता है कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी का समय ७ वी ८ वीं शताद्वी ही है और उस समय भट्टारकों द्वारा यह बात प्रतिमा प्रथा की उठाई गई हो जो कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी को मान्य न हुई हो और उन्होंने स्पष्ट करने के लिये यह श्लोक न. ३५ का लिख दिया हो। इतना ही नहीं आगे इसी पटपाहर या अपाहड़ प्रन्थ में जो चौथा बोधपाहुड़ है उसमें तो बिल्कुल ही स्पष्ट कर दिया कि आयतन, सिद्धायनन, चैत्यग्रह, प्रतिमा, सिद्धप्रतिमा किसे कहते हैं ? तथा दर्शन का स्वरूप क्या है ? जिनबिंब का क्या स्वरूप है ? कसे जिनबिंब की पूजा करना चाहिए ? अरहन्तमुद्रा किसे कहते हैं ? ज्ञान का स्वरूप क्या है ? देव का स्वरूप क्या है ? सच्चे तीर्थ कौन और क्या २ है ? कि जिनसे कल्याण होता है। इस तरह १-आयतन, २-चैत्यग्रह, ३-जिनप्रतिमा, ५-दर्शन, ५-जिनबिंब, ६-जिनमुद्रा, ७-ज्ञान, ८-देव, ई-तीर्थंकर, १०-अरहन्त तथा ११-विशुद्धप्रवज्या, जैसे अरहन्त भगवान ने कहे तैसे इस ग्रन्थ ( अष्टपाहुड़ विर्षे चौथे बोधपाहुइ ) में ग्यारह स्थल कहे हैं। क्योंकि कालदोष से अनेक मत भये हैं तथा जैनमत में भी भेद भये हैं तिनमें आयतन आदि ( उपरोक्त ग्यारह बातों ) में विपर्यय ( विपरीत ) भया है, इनका परमार्थभूत ( कल्याणस्वरूप ) सांचा स्वरूप नो लोक जाने नाही अर धर्म के लोभी भये जैसी बाह्यप्रवृत्ति ( लोकादि ) देखें तिसही में प्रत्रतने लगि जांय, तिनकू सम्बोधने अर्थि यहु बोधपाहुइ रच्या है तामें पायतन आदि ( उपरोक्त ) ग्यारह स्थानकनि ( बातों ) का परमार्थभूत सांचा स्वरूप जैसा सर्वज्ञदेव ने कहा है तैसा कहेंगे तथा अनुक्रम ते इनका व्याख्यान करेंगे सो जानने योग्य है। ___ श्री कुन्दकुन्द स्वामी के इस तरह के उपरोक्त सब विचार कि जिनका स्पष्टीकरण श्री पं० जयचन्द जी छावड़ा जयपुर निवासी ने १६ वीं शताब्दि में तथा इसके पहिले श्री श्रुतिसागर जी सूरि ने किया है कि जिन स्वर्गीय पं० जयचन्द्र जी का पाण्डित्य हरएक विषय में अपूर्व था, जानकर बिल्कुल यह समझा जाता है कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ७ वी ८ वीं शताब्दि में हुए हैं जब कि भट्टारकों द्वारा जिनप्रतिमा, जिनबिंब, सिद्धप्रतिमा तथा दर्शन, पूजा सम्बन्धी विवाद चल पड़ा था और जिस विवाद का निराकरण (खण्डन ) करने को उन्हें इतना लिखना पड़ा । परन्तु उस समय ७ वी ८ वी शताब्दि में आज की तरह के आने जाने के तो कोई साधन न थे और न तार टेलीफोन थे कि एक श्री कुन्दकुन्द स्वामी सब भट्टारकों के इस स्वार्थपूर्ण वातावरण या प्रणाली को खत्म कर देते । अत: यत्रतत्र दूरदेश उनके समय में ही अथवा उनके स्वर्गगमन बाद भट्टारकों ने अपनी मनमानी यह प्रथा चला दी, जो चल पड़ी सो चल पड़ी । परन्तु जबकि हम
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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