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________________ १०४ ] * तारण-वाणी * श्रेष्ठ है । कर्मों के नाश करने का यही मूल कारण है कि स्वाध्याय करना । भावार्थ - श्री जिनेन्द्र भगवान का प्रणीत सत्यार्थ का प्रकाश करने वाला भागम है। जिनागम க் अभ्यास से द्रव्यश्रुन की प्राप्ति के साथ मन और इन्द्रियों का पूर्ण निग्रह होता है और विषय - कषाय तथा काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि विकारभावों से आत्मा की पर गति रुक जाती है, इस प्रकार राग द्वेष की परगति का संरोध होने से श्रात्मा अपने शुद्ध स्वसमयरम तल्लीन हो जाता है । स्वात्मस्वभाव में स्थिर होना ही ध्यान है। 'यह अर्थ - भावार्थ श्री क्ष० ज्ञानसागर जी का लिखा हुआ है । पाठको ! इतना स्पष्ट लिखने पर फिर भी अब कहां से एक दूसरा मूल कारण मूर्ति बन गई कि जो मूर्ति के विराजमान करने को तो बड़ी बड़ी संगमरमर की वेदियां बनाई जावें और उनपर सुनहली पत्र चढ़ें तथा जिनागम - जैनशास्त्र जिन्हें कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी धर्मध्यान का मूल कारण व सर्व श्रेष्ठ कहें वे एक ताक या अल्मारी में रखे हुए धूल से ढंके रहें उनका अध्ययन तो दूर रहा दर्शन भी न किया जाय, धातु पाषरण की मूर्तियों को तो भगवान की तरह पूजा जाय जिसका कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने तथा जैन सिद्धांत ग्रंथों के रचयिता किन्हीं एक भी आचार्य ने अपने ग्रंथों में नाम भी नहीं लिया हो, व जिन जैनशास्त्रों को सभी श्राचार्यो ने धर्म का मूल व सर्वश्रेष्ठ कहा उनकी कोई प्रभावना नहीं, वेदी में रखने की प्रथा नहीं, दर्शन नहीं, पूजन नहीं। मैंने देखा कि प्रतिमा जी तो सुनहलो वेदी जी में विराजमान हैं और शास्त्र एक टूटी सी काष्ठ की पेटी में परिक्रमा के एक कोने में रखे हैं, जिनपर धूल चढ़ी और दीमक तथा चूहे खा रहे हैं क्या यही कुन्दकुन्दाम्नाय है ? सच्ची कुन्दकुन्दाम्नाय को श्री तारन स्वामी ने समझा था। यदि कदाचित् श्री कुन्दकुन्द स्वामी को मूर्ति की मान्यता कराने की आवश्यकता श्रावकों के लिये होती तो जहां यह गाथा ६५ नं० की पंचमकालीन भरतक्षेत्र के श्रावकों के लिये बनाई थी इसके पहिले एक गाथा अष्टद्रव्य से मूर्ति पूजा को मूलकारण व सर्वश्रेष्ठ बताने के लिये बनाते कि जिसका उन्होंने जिक्र भी नहीं किया। मैं किसी रागद्वेष से नहीं, केवल एकमात्र इस दृष्टि से सब कुछ इस विषय में लिख रहा हूँ कि वस्तुस्वरूप को समझो और यदि अपने को कुन्दकुन्दान्नायी कहते हो तो सच्चे कुन्दकुन्दाम्नायी बनो और उनके बताए हुए सच्चे जैनधर्म के मार्ग पर चलकर आत्मकल्याण करो, और अपनी अध्यात्मिक वृत्ति और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के द्वारा संसार के हितू व प्रेमपात्र बनो तथा तन, मन और धन लगाकर इस महान पवित्र जैनधर्म का प्रचार-प्रसार संसार में करो तथा जो संस्थाएं अथवा महापुरुष जैनधर्म की प्रचारक हों उन्हें पूर्णतया सहयोग दो एकमात्र यही कर्त्तव्य हमारा आप सबका है । समय की गति - विधि और लोगों की मनःस्थिति को देखो, अब समय सोने चांदी की चमक दिखाने का नहीं है अपने व्यवहार की व धर्म सिद्धांत की चमक दिखाने का समय है। ऐसा दिखाई देता है। कि यह सोने चांदी की चमक चाहे घरों की हो अथवा मन्दिरों की हो शायद कभी घातक न हो जाय ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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