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________________ जैनधर्म की कहानियाँ और फिर ये राज्य-वैभव तुम्हारे लिए ही तो है। अन्यत्र प्राप्त न हों - ऐसी वस्तुएँ अपने यहाँ सहज उपलब्ध हैं। फिर चोरी करने का क्या काम है? चौर्यकर्म तो महा पापमय है और लोकनिंद्य भी है। इससे तो जीव वर्तमान में ही अगणित दुःखों को पाते हैं और जगत में अपयश के पात्र बनते हैं, विवेकहीन हो महा संताप को प्राप्त होते हैं। परलोक में भी महादुःख प्राप्त करते हैं। इसलिए ऐसे कार्य को भविष्य में तुम कभी नहीं करना।" __जैसे ज्वर पीड़ित व्यक्ति को मिष्ट भोजन नहीं सुहाता है, वैसे ही पाप से मोहित विद्युच्चर को पिता द्वारा दी गई सुखप्रद सीख अच्छी नहीं लगी। वह बड़ों की मान-मर्यादा तोड़कर पिता को जबाब देने लगा - "महाराज! चौर्यकर्म और राज्य में बड़ा अन्तर है। राज्य में तो परिमित लक्ष्मी होती है, मगर चोरी से अपरिमित लक्ष्मी का लाभ होता है, इसलिए दोनों में समानता नहीं हो सकती। आपको चौर्यकर्म से भी गुण ग्रहण करना चाहिए।" इसप्रकार कहकर वह कुछ भी सोचे-विचारे बिना पिता के वचनों का उल्लंघन करके क्रोधाग्नि से कुपित होकर घर से निकल गया और राजगृही नगरी में जाकर वहाँ कामलता नाम की वेश्या के चक्कर में फंस गया। उसके रूप पर मोहित होकर उसके साथ इच्छानुसार विषय-कषाय में मग्न होकर रहने लगा तथा उसकी हर इच्छा पूर्ण करने में तत्पर वह दुष्ट चोरी आदि कार्य करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। - इसप्रकार गौतम गणधर ने विद्युच्चर चोर का वृत्तान्त कहा। जम्बूकुमार के जन्मस्थान संबंधी वृत्तान्त जिसकी प्रतीक्षा श्रेणिक राजा आदि चातकवत् कर रहे थे, आज वह मंगल बेला आ गई है। सभी के मन-मयूर आनंद से नाच श्री वीरप्रभु की दिव्यदेशना-श्रवण के उपरांत श्रेणिक राजा पुनः उत्तमोत्तम गुणों के धारणहार श्री गौतम स्वामी से विनयपूर्वक प्रश्न पूछने लगे - "हे स्वामिन् ! विद्युन्माली देव के वृत्तांत में यह भी
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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