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________________ ५६ जैनधर्म की कहानियाँ आराधकों के द्वारा जरा-सा संबोधन प्राप्त होते ही तत्काल वे अपने ज्ञान-नेत्रों को खोलकर सावधान हो जाया करते हैं। भावदेव के जीव का सागरचन्द्र के रूप में अवतरण __जाम्बू वृक्षों की अधिकता से सार्थक नामधारी जम्बूद्वीप के महामेरु पर्वत के पूर्वविदेह क्षेत्र में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल परिवर्तन के अभाव से सदा चतुर्थकाल ही वर्तता है। वहाँ सदा ही तीर्थंकरों का जन्म होता रहता है, उन महापुरुषों के चरण-कमलों के स्पर्श से वह सदा पवित्र रहता है। यह भूमि सदा पुण्यवती होने से चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र आदि महापुरुषों को भी जन्म देती रहती है और सदा धन-धान्य, फल-फूलों से सम्पन्न रहती है। उसमें एक पुष्कलावती नाम का देश है। उसकी भूमि भी सदा हरी-भरी होने से सदा सौभाग्यवती रहती है। उसके अन्तर्गत ग्राम निकटवर्ती होने से वहाँ के मनुष्य तो आसानी से अन्य ग्रामों में आ-जा सकते ही हैं, परन्तु वहाँ के थलचर पक्षी भी सुगमता से ग्रामान्तर को आ-जा सकते हैं। वहाँ के सरोवर कमलों से शोभित हैं और झीलों पर भी हंसों की मधुर ध्वनियाँ गुंजायमान रहती हैं। वह क्षेत्र सभी को सदा सुखप्रद है, इत्यादि अनेक प्रकार से वह देश सम्पन्न है। मानो तीर्थकरों के दर्शनार्थ स्वर्गलोक ही आया हो। उसकी पुंडरीकिणी नगरी सदा साधु-संतों से पावन है। पात्र जीवों को वीतरागता के लिये आह्वान करनेवाले विशाल गगनचुंबी जिनालय हैं। उसमें मणिरत्नों की अगणित जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं। रत्नत्रय की उत्पत्ति के लिए मानो पुंडरीकिणी नगरी की भूमि रत्नगर्भा है। वहाँ का राजा वज्रदन्त था, उसके केवल दाँत ही वज्र के नहीं, बल्कि पूरा शरीर ही वज्रमयी था अर्थात् वह वज्रवृषभ नाराच संहनन का धारी था। उसकी अनेक गुणसम्पन्न यशोधना नाम की पटरानी की कुक्षी से भावदेव का जीव सानत्कुमार स्वर्ग से आकर पुत्र हुआ। उसके जन्म से बन्धुजनों को अपार आनन्द की प्राप्ति हुई। उन्होंने उस बालक का नाम सागरचन्द्र रखा। वह चन्द्रकलासम प्ररिसमय वृद्धिंगत होता जाता था।
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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