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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र पहले हृदय कंपित होता है, पीछे कल्पवृक्ष कंपते दीखते हैं। मरण निकट आने पर देवों को जैसा दुःख होता है, वैसा दुःख तो नारकियों को भी नहीं होता। जिसप्रकार सूर्य उदित होता है तो वह अस्त भी होता है। नित्य रहकर प्रतिसमय बदलना प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है और फिर धन-संपदा तो स्वभाव से ही चंचल है, वह तो पुण्य की दासी है। पुण्य के अभाव में एक समय भी नहीं टिकती। इसलिए हे बुद्धिमान! आप आर्य हो, सजन हो, इस समय आपको कुगति के कारणभूत शोक-संताप को छोड़कर धर्माराधना में अपने चित्त को लगाना ही श्रेष्ठ होगा।" इसप्रकार समझाये जाने पर दोनों ने परम हितकारी धर्म में अपने चित्त को लगाया। अहो धर्म! अहो आत्मिक अतीन्द्रिय आनंद! तुम्हारे वियोग में मैं दुःखी हो गया था। आराधनापूर्वक देव-पर्याय का विलय उन दोनों देवों ने अपने अवधिज्ञान से यह जान लिया कि "हम दोनों पूर्वभव में आत्माराधक संत थे, आराधना में कमी रहने से हमें स्वर्गलोक में आना पड़ा। अन्दर में पूर्वभववत् ही रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु इच्छानिरोध रूप तप को धारण करने की भावना होने पर भी अरे रे! यह इस देवपर्यायगत स्वभाव के कारण उसे धारण नहीं कर सकते। इन्द्रिय-विषयों पर विजय प्राप्त कर व्रत-संयम धारण करने में हम असमर्थ हैं। अब देवपर्याय में संभवित देवदर्शन आदि कार्यों को करना ही उचित होगा।" इसप्रकार विचार कर वे दोनों देव जिन-मंदिर में गये और भावों की शुद्धिपूर्वक जिनेन्द्रदेव के दर्शन, पूजन एवं भक्ति आदि कार्य करने लगे। आयु की अंतिम बेला में दोनों देव कल्पवृक्ष के नीचे शांतभावों से कायोत्सर्ग मुद्रा धारण कर आत्मध्यान करने लगे। निर्भय हो णमोकार मंत्र का पावनकारी जप करते हुए जड़ प्राणों का त्याग किया। उनकी पौद्गलिक देह कपूर के समान क्षण भर में विलीन हो गई। परमपवित्र वीतरागी धर्म की आराधना करनेवाले प्राणियों के ज्ञाननेत्र पूर्वकृत अपराध के फल में कभी बंद भी हो जाते हैं, मगर अन्य
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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