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________________ जैनधर्म की कहानियाँ दोनों आपस में प्रीतिवंत थे। दोनों ही सुखपूर्वक वृद्धिंगत होते-होते कुमार अवस्था को प्राप्त हुए ही थे कि पापोदय से उनके पिता को कुष्ट रोग हो गया। उसके आँख, नाक आदि अंग-उपांग गलने लगे, जिससे वह दुःख में अति व्याकुल हो गया था। अरे, रे! प्राणियों को अज्ञान के समान और कोई दूसरा दुःख नहीं है। ज्ञान-नेत्र बन्द होने से उसने पशुबलि आदि विवेकहीन कार्यों में पंचेन्द्रिय जीवों को वचनातीत दुःख दिये थे, उनका फल तत्काल ही वह भोगने लगा। किसी भी इन्द्रिय का विषय-सेवन अच्छा नहीं। जब न्याय-नीति से प्राप्त उचित भोग आदि कार्य भी पापबंध के कारण होते हैं, तब भला पापों में मस्त होकर किये गये अनुचित कार्य कहाँतक अच्छे हो सकते हैं? इसलिये ज्ञानियों ने इन्द्रिय-विषयों को संसारस्वरूप तथा दुःखदायक जानकर विषतुल्य त्याग ही दिये। ये त्यागने योग्य ही हैं। आत्मा का आनंद निर्विकारी है, मोक्षसुख दायक हैं, इसलिए हे भव्य ! उसी धर्मामृत का पान करो। यह मनुष्य रत्न बार-बार मिलना मुश्किल है। मनुष्यभव को हारने का कभी विचार भी नहीं करना चाहिए। इतना होने पर भी अज्ञान-अंधकार से ग्रसित वह ब्राह्मण वेदना से छुटकारा पाने से लिए नित्य ही अपना मरण चाहने लगा, मगर आयु पूर्ण हुए बिना मरण कैसे हो सकता है? मरण न होने से वह कीट-पतंग के समान स्वयं अग्नि की चिता में गिरकर भस्म हो गया। पति-वियोग से पीड़ित उसकी पत्नी सोमशर्मा भी उसी चिता में जलकर भस्म हो गई। माता-पिता से रहित वे दोनों भाई महादु:खी हो गये। उन दोनों बालकों के ऊपर संकटों का पहाड़ टूट पड़ा, वे शोक से संतापित हो करुणा-उत्पादक विलाप करने लगे, तब उन्हें उनके परिवारजनों ने संबोधन कर धीरज बँधाया, जिससे वे दोनों कुछ सावधान हुए। उसके बाद उन्होंने अपने माता-पिता के उस कुल में जो-जो संध्या तर्पण आदि क्रिया-कर्म होते, उन्हें किया। पश्चात् अपने गृहकार्य आदि में लग गये तथा इसीप्रकार संसारिक कार्यों में लगे उनको बहुत दिन बीत गये। उनके महाभाग्य से उसी नगर के वन में एक वीतरागी संत श्री सौधर्माचार्य योगिराज पधारे, जो साक्षात् धर्म की मूर्ति ही थे।
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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