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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र ३५ वे रत्नत्रय के धारी, बाह्याभ्यंतर सभी प्रकार के परिग्रह के त्यागी, जन्मे हुए बालकवत् नग्न दिगम्बर रूप के धारी एवं व्रत-समितियों में पूर्ण निर्दोष आचरणवंत थे। वे दया, क्षमा, शांति आदि गुणों से विभूषित थे। वे एकांत मतों के खण्डन करनेवाले एवं स्याद्वाद विद्या के धारी थे। वे उपसर्ग-परीषहों पर जय प्राप्त करनेवाले एवं तपरूपी धन से अलंकृत थे। ऐसे अनेक गुण युक्त वे आचार्य आठ मुनियों के संघ सहित वन में आ विराजमान हुए। अहो! मुनिराजों का स्वरूप कितना अलौकिक है। वीतरागी संतों का स्वरूप ऐसा ही होता है। वहाँ पूज्यवर सौधर्माचार्यजी का जगतजन को हितकर, वैराग्यवर्द्धक और आनंदमयी धर्मोपदेश हो रहा है। 'चलूँ, मैं भी धर्मामृत का पान करूँ" - इस प्रकार विचार करके भावदेव ब्राह्मण वन के लिए चल दिया तथा शीघ्र ही वन में पहुँच कर आचार्यदेव को नमस्कार कर वहीं बैठ गया। श्री सौधर्माचार्यजी का धर्मोपदेश हे भव्य जीवों! इस संसार में सभी प्राणी धर्म से अनभिज्ञ होने से दु:खी हैं। चारों गतियों में प्राय: सभी जीव आत्माराधना से विमुख होकर मोह, राग, द्वेष में कुशलता के कारण दारुण दुःख से दुःखी हैं। संयोगों की अनुकूलता सुख का कारण नहीं और संयोगों का वियोग दुःख का कारण नहीं है। आत्मा में शरीर, मन, वाणी और इन्द्रियाँ नहीं हैं, भोग और उपभोग भी नहीं है। शरीरादिक स्वयं सुख से रहित हैं, उनमें सुख की कल्पना से सुखमयी निजात्मा को भूलकर, इन्द्रियों और उनके विषयों को इष्ट-अनिष्ट मानकर, सुख से बहुत दूर हो अनादि से यह आत्मा वर्त रहा है। हे आत्मन् ! तुम स्वयं ज्ञान-आनंदमयी वस्तु हो, निजात्मा को शाश्वत सुखमयी वस्तु मानो और अतीन्द्रिय आनंद का भोग करो। इन अनित्य वस्तुओं में नित्य की कल्पना से, दुर्गति के कारणभूत मिथ्यात्वादि भावों में सुगति के भ्रम से, हे आत्मन्! तुम झपट्टे क्यों मार रहे हो? हे जीव! तू सुखाभासों में सुख के भ्रम से भूला है। तेरा सच्चा सुख तो तेरे में ही है और निज के आश्रय से उत्पन्न होने वाला रत्नत्रय ही धर्म है। इसलिए अपनी आराधना
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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