SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम सर्ग की कथा १७ और दिन का विभाजन करके वह निरन्तर उद्योग कर रहा है। अभिमानरहित वह दुर्योधन सेवकों के साथ मित्र की तरह, मित्रों के साथ बन्धु की तरह और बन्धुजनों के साथ अपने समान व्यवहार करता है। दुर्योधन की नीति समन्वय बादिनी है। धर्म, अर्थ और काम-इन तीन पुरुषार्थों का समान भाव से दुर्योधन सेवन करता है। वह इनम से किसी की भी अवहेलना नहीं करता है और न फिसी एक में उसकी अत्यासक्ति है। साम, दान, दण्ड और भेद के प्रयोग में दुर्योधन अत्यन्त निपुण है। दुर्योधन प्रसन्न होने पर केवल मधुर वचनों का प्रयोग ही नहीं करता अपितु साथ में धन भी देता है। जिसे देता है उसे सत्कारपूर्वक देता है । सत्कार भी वह गुणों को देखकर करता है। गुणों से समन्धित व्यक्ति का ही वह सत्कार करता है, गुणहीन का नहीं । लोभ अथवा क्रोध के वशीभूत होकर दुर्योधन किसी को दण्ड नहीं देता। दण्ड के विषय में वह स्वेच्छाचारी नहीं है । मनु इत्यादि धर्माचार्यों के उपदेशों के अनुसार वह दण्ड देता है । दण्ड देने में वह पक्षपात नहीं करता। जिस आधार पर वह रात्रओं को दण्ड देता है, उसी आधार पर वह अपने पुत्र को भी दण्ड देता है। जो अपराध करता है वह दण्ड पाता है, चाहे वह कोई भी हो। आप लोगों से भयभीत रहता हुआ वह चारों ओर आत्मीय जनों को रक्षकों के रूप में नियुक्त करके भयरहित आकृति को धारण करता है। सौंपे गए कार्यों के पूर्ण हो जाने पर वह सेवकों को धनादि देकर अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है। दुर्योधन भली-भाँति जानता है कि किस कार्य की सिद्धि के लिए किस उपाय का प्रयोग करना चाहिए। उपायों के समुचित प्रयोग के कारण उसकी सम्पत्ति दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती जा रही है । सम्पत्ति चारों ओर से उसके पास एकत्र हो रही है । उपहार और कर देने वाले राजाओं से उसका आँगन भरा रहता है। प्रजापालन में तत्पर दुर्योधन अन्न की वृद्धि के लिए अपने राज्य में सिंचाई के साधनों-कुओं, नहरों, जलाशयों इत्यादि का निर्माण करा रहा है। सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो जाने से प्रचुर अन्न की उपज हो रही है। किसान लोग अब वर्षा के जल पर निर्भर नहीं हैं। कृपि-कर्म सुखसाध्य और लाभप्रद हो गया है। अन्न की विपुलता
SR No.009642
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibhar Mahakavi, Virendra Varma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year1978
Total Pages126
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size81 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy