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________________ प्रथम सर्ग की कथा प्रथम सर्ग की कथा को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथा भाग में वनेचर (गुमचर) की उत्रित है तथा द्वितीय भाग में द्रौपदी के उक्ति है। प्रथम भाग (वनेचर की उक्ति)-राज्य से भ्रष्ट होकर युधिष्ठिर द्रौपदी और अनुजों के साथ द्वैतवन में निवास करते हैं। दुर्योधन के सम्पूर्ण वृत्तान्त को जानने के लिए युधिष्टिर के द्वारा हस्तिनापुर भेजा गया गुप्तचर (वनेचर ] वापस आता है। वह युधिष्ठिर को प्रणाम करता है । युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर वह दुर्योधन के वृत्तान्त को इस प्रकार सुनाता है-हे राजन् ! गुप्तचरों के माध्यम से ही सम्पूर्ण बातों को जानने वाले स्वामी को गुप्तचर के द्वारा ठगा नहीं जाना चाहिए। इसलिए अप्रिय अथवा प्रिय जैसा भी मैं कहूँ उसको आप क्षमा करें । क्योंकि हितकर और प्रिय वचन दुर्लभ होता है । जो राजा को हितकारी उपदेश नहीं करता वह कुत्सित अमात्य (कुमन्त्री, कुमित्र ) है । जो हितकारक व्यक्ति से उपदेश नहीं सुनता वह कुस्वामी (निन्दित राजा) है । राजाओं और अमात्यों के परस्पर अनुकूल होने पर समस्त सम्पत्तियाँ वंदा अनुराग करती हैं। स्वभाव से ही दुबोध राजाओं का चरित्र कहाँ और मुझ जैसे अज्ञानी पुरुष कहाँ ? शत्रुओं के अत्यन्त रहस्यपूर्ण राजनीति-मार्ग को जो मैं जान पाया हूँ वह आप का ही प्रभाव है। राजसिंहासन पर आरूट भी दुर्योधन वन में निवास करने वाले आप से पराजय की शङ्का करता हुआ द्यूतक्रीड़ा के बहाने से जीती हुई पृथ्वी [ राज्य ] को अत्र नीति से जीतना चाहता है। कुटिल दुर्योधन आप को जीतने की अभिलाषा से अपने निर्मल यश को प्रजा में फैला रहा है। काम, क्रोध इत्यादि छः अन्तःशत्रुओं के ऊपर विजय प्रात करके वह मनुप्रोक्त राजधर्म का अनुसरण कर रहा है। आलस्य का परित्याग करके एवं कार्य के अनुसार रात
SR No.009642
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibhar Mahakavi, Virendra Varma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year1978
Total Pages126
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size81 MB
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