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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संयम राह चले सो शूर ३२५ है। संसार में रहकर भी तू अपनी इच्छा के अनुसार धर्म आराधना कर सकती है, पर दीक्षा की बात तू जाने दे... मेरी बात मान ले बेटी...।' 'पिताजी, संसार के तमाम सुखों के प्रति मेरा मन विरक्त हो गया है। अब किसलिए... किसके लिए संसार में रहूँ? अब तो मुझे अनंत सिद्ध भगवंतों का बुलावा याद आ रहा है...। मैं अब इस संसार में नहीं रह सकती...| मुझे तो आप अंतःकरण से आशीर्वाद दें, पिताजी!' राजा-रानी ने सुरसुंदरी को और अमरकुमार को समझाने की काफी कोशिश की। परंतु पूर्णतः विरागी बने हुए अमरकुमार और सुंदरी ने ऐसे ज्ञानगर्भित ढंग से प्रत्युत्तर दिये कि उन्होंने इजाज़त दे दी। __ रतिसुंदरी ने गुणमंजरी को अपने उत्संग में लेकर विश्वास दिलाते हुए कहा : 'बेटी इस पुत्र का राज्याभिषेक करने के पश्चात् हम भी तेरे साथ चारित्र जीवन ग्रहण करेंगे!' धनवती ने कहा : 'हम दोनों ने भी यही निर्णय किया है। परिवार में त्याग का आनंद फैल उठा। नगर में दीक्षामहोत्सव मनाने की महाराजा ने आज्ञा दी। इतने में नगररक्षक दौड़ते हुए हवेली में आये। उन्होंने महाराजा से निवेदन किया : 'महाराजा, नगर के मैदान में एक हज़ार विद्याधरों के विमान उतर आये हैं। हमने तलाश की, तो मालूम पड़ा कि सुरसंगीतनगर के विद्याधर राजा रत्नजटी अपने परिवार के साथ पधारे हैं।' सुरसुंदरी खुशी से उछल पड़ी! 'पिताजी, मेरे धर्मबंधु आये हैं... हम शीघ्र उनको लेने चलें।' 'नाथ... आप देर मत करना... जल्दी रथ सजाइये...' 'मंजरी! माताजी! सब चलो... मेरा वह भाई आया सही! साथ में मेरी प्यारी चार भाभियाँ भी होंगी। वे सब मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे!' एक पल की भी बगैर देर किये सभी रथ में बैठ गये और कुछ ही मिनटों में रथ नगर के बाहर पहुँच गये। दूर ही से रत्नजटी और चार रानियों को देखकर सुरसुंदरी रथ में से उतर आयी...। पीछे-पीछे सभी रथ में से नीचे उतर गये। रत्नजटी चारों रानियों के साथ त्वरा से सामने आया। सुरसुंदरी के मुँह से For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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