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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहचिंतन की ऊर्जा ३०४ रही थी। अमरकुमार के दिल-दिमाग पर सुरसुंदरी की बातें बराबर असर कर रही थी। चारित्रधर्म-संयमधर्म की गहरी चाह धीरे-धीरे प्रगट हो रही थी। सुरसुंदरी ने कहा : 'नाथ, सद्गुरू का योग प्राप्त हो... और संयमधर्म स्वीकार करने तीव्र अभीप्सा जाग उठे तो क्या आप मुझे अनुमति देंगे?' एकदम मृदु, कोमल और स्नेहार्द्र स्वर में सुरसुंदरी ने पूछा। 'तो क्या तू अकेली ही चारित्र के मार्ग पर जाने की सोच रही है?' 'आपके सिर पर तो राज्य की जिम्मेदारी है ना? उसे भी तो वहन करना होगा?' 'नहीं, तू यदि संसार को छोड़ चले तो फिर मैं संसार में रह नहीं सकता! तेरे बिना संसार मेरे लिए शून्यवत् है।' 'गुणमंजरी मैं ही हूँ नाथ!' 'नहीं, गुणमंजरी-गुणमंजरी है, तू-तू है!' 'गुणमंजरी को आपके प्रति अगाध प्रेम है, आपके चरणों में पूर्णतया समर्पित वह महासती नारी है। 'सही बात है तेरी, पर मेरे दिल की स्थिति अलग है... मैं उसके बिना जी सकता हूँ, ऐसा मैं महसूस करता हूँ... पर तेरे बिना जीना... किसी भी हालत में संभव नहीं... ऐसा मुझे लगता है। इसलिए यदि चारित्रधर्म को अंगीकार करना होगा तो हम दोनों साथ-साथ ही अगीकार करेंगे।' _ 'मेरे-आपके बिना गुणमंजरी का क्या होगा? उसका भी विचार हमें करना चाहिए ना?' 'जब वैसा समय आएगा तब सोचना है ना? देखेंगे।' 'आपकी बात सही है, पर ऐसा अवसर शायद निकट भविष्य में आ जाए, वैसा मेरा मन कहता है।' 'तो... गुणमंजरी को बुला लेंगे, उसे बात करेंगे, परंतु तू अभी माता-पिता को वैसी कोई बात करना मत!' 'आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।' सुरसुंदरी ने मस्तक पर अंजलि रचकर सिर झुकाकर अमरकुमार की आज्ञा को अंगीकार किया। रात का प्रथम प्रहर पूरा हो गया था। अमरकुमार श्रेष्ठी धनावह से मिलने For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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