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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहचिंतन की ऊर्जा ३०५ के लिए अपने कक्ष से चला गया। सुरसुंदरी की स्मृति में रत्नजटी और उसकी चार पत्नियाँ आ गयीं | नंदीश्वर द्वीप और महामुनि मणिशंख उपस्थित हो गये। वह रोमांच से सिहर उठी! 'यदि हम चारित्र लेंगे, साधधर्म अंगीकार करेंगे... रत्नजटी को और चारों रानियों को मैं यहाँ आने के लिए निमंत्रण दूंगी...| उनके उपकार को मैं कैसे भूला सकती हूँ? कितना उत्तम वह परिवार है...? गुणों से समृद्ध! निःस्वार्थ प्रेम से लबालब भरा हुआ! मेरे उस धर्मभ्राता को संदेश पहुँचाने वाला कोई मिल जाए तो अभी ही उसे मेरी सुखशांति के समाचार भेज दूं। पर उस विद्याधरों की दुनिया में जानेवाला कौन मिलेगा?' सुरसुंदरी को गुणमंजरी का स्मरण हुआ। राजा गुणपाल के शब्द उसके दिल में उभरने लगे : 'बेटी, गुणमंजरी तेरी गोद में है।' और सुरसुंदरी विह्वल हो उठी... 'यदि गुणमंजरी प्रसन्नमन से चरित्र की अनुमति नहीं देगी तो? उसकी उपेक्षा कर के तो मैं उसका त्याग कैसे कर सकती हूँ? और उसे मुझसे प्यार भी तो कितना ज्यादा है? वह किसी भी हालत में मुझे अनुमति देनेवाली नहीं है। यदि वह खुद संतान के बंधन में न बँध गयी होती तो हमारे साथ वह भी चारित्र की राह पर चल देती। परंतु वह तो निकट भविष्य में माँ बननेवाली है। सुरसुंदरी उलझन में फँस गई। जैसे कि चारित्र लेना ही है - वैसे भावप्रवाह में बहती रही। संसार के असीम सुखों के बीच रही हुई सुंदरी का मन संयम के कष्टों को सहजरूप से स्वीकारने के लिए लालायित हो उठा था। विचारों से मुक्त होने के लिए उसने श्री नवकार मंत्र का ध्यान किया। स्मरण करते-करते ही वह निद्राधीन हो गयी। हृदय में वैराग्य के रत्नदीप को जलता हुआ रखकर सुरसुंदरी संसार के सुखभोग में जी रही है। पाँचो इंद्रियों के वैषयिक सुख भोगती है। अमरकुमार के दिल में भी वैराग्य का दीया जल उठा है। वह दीया बुझा नहीं है...। संसार के कर्तव्यों का पालन करते जा रहे हैं। धर्मशासन की प्रभावना के भी अनेक कार्य करते जा रहे हैं। महीने बीत जाते हैं। एक दिन बेनातट नगर से राजदूत आया और उसने शुभ संदेश सुनाया : 'गुणमंजरी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। माता और पुत्र दोनों का स्वास्थ अच्छा है, पुत्र भी खूबसूरत और निरोगी है।' For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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