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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहचिंतन की ऊर्जा ३०३ 'हम यथासंभव पालन तो कर ही रहे हैं न?' 'कितना अल्प? गृहस्थजीवन में कितना पालन हो सकता है? जिनाज्ञा का संपूर्ण पालन चारित्रजीवन में ही संभव है... निर्ग्रन्थ जीवन में ही पूर्णतया पालन हो सकता है।' 'चारित्रजीवन सरल नहीं है... बड़ा दुष्कर है... बड़ा कठिन होता है वह जीवन!!' 'फिर भी वह जीवन जीना असंभव तो नहीं है न? हज़ारों स्त्री-पुरूष वैसा जीवन जी रहे हैं न...? तो फिर हम भी क्यों वैसा जीवन नहीं जी सकते?' __'इसके लिए... ऐसे जीवन के लिए अपूर्व सत्त्व चाहिए!' 'वैसा सत्त्व अपने में भी प्रगट हो सकता है!' । 'ज्ञानमूलक वैराग्य चाहिए..!!' 'आ सकता है वैसा वैराग्य अपने में भी!' 'इन्द्रियों की उत्तेजना, कषायों की विवशता... और कष्टों को सहने की अक्षमता... लाचारी... ये सब उस वैराग्य को तहस-नहस कर देते हैं।' ___ "वैराग्य को स्थिर, दृढ और वृद्धिगत रखने के लिए तीर्थंकर भगवंतों ने अनेक उपाय दर्शाये हैं। यदि ज्ञान में मग्नता हो... बाह्य आभ्यंतर तप में लीनता रहे... ध्यान में तल्लीनता रहे... तो वैराग्य अखंड-अक्षुण्ण रह सकता है।' । 'परंतु राग-द्वेष के प्रबल तूफान उठे तब फिर ज्ञान-ध्यान और त्याग-तप भी कभी नाकामियाब बन जाते हैं, आत्मा को बचाने के लिए।' 'राग-द्वेष का निग्रह किया जा सकता है, संयम किया जा सकता है, अनुशासित किये जा सकते हैं...।' ‘पर यदि संयम रखने में सफल नहीं हुए तो?' 'ऐसा डर क्यों! ऐसी आशंका क्यों? जिनाज्ञा के मुताबिक पुरूषार्थ करना, अपना कर्तव्य है...!! फल की चिंता करने से क्या? निष्फलता की तो कल्पना ही नहीं करनी चाहिए... परमात्मा का प्रेम-उनकी भक्ति ही हम में ऐसी शक्ति का संचार करती है कि हम परमात्मा की आज्ञा के पालन के लिए शक्तिमान बन सकते हैं! भक्ति में से अपूर्व शक्ति पैदा होती है।' __ अमरकुमार सुरसुंदरी के सामने देखता ही रहा...। उसके चेहरे पर अपूर्व तेज की आभा दीप्तिमान थी। उसकी आँखों में से वैराग्य की गंगा जैसे बह For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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