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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिदाई की घड़ी आई २८७ गुणमंजरी को भी मना लिया है।' अमरकुमार मौन रहा। सुरसुंदरी ने महाराजा से कहा : 'पिताजी, इनकी स्वीकृति ही समझें। आपके प्रस्ताव को भला कैसे टाला जा सकता है?' 'बेटी, तुम दोनों सुयोग्य हो। गुणमंजरी को तुम्हें सुपुर्द करके मैं तो बिलकुल निश्चिंत हूँ।' 'आप राजपुरोहितजी से शुभतम मुहूर्त निकलवाये, फिर शादी कर दीजिएगा।' महाराजा का चित्त प्रमुदित हो उठा। अमरकुमार के गुणगंभीर और सौंदर्यसंपन्न व्यक्तित्व से वे प्रभावित हो गये थे। हालाँकि, सुरसुंदरी के साथ हुए अन्याय को जानकर 'मेरी बेटी के साथ तो ऐसा विश्वास-भंग नहीं होगा न?' यह आशंका उन्हें कुरेद रही थी, पर संसार में साहस तो करना ही पड़ता है! आखिर सुख-दुःख का आधार तो स्वयं के शुभाशुभ कर्म ही होते हैं! अमरकुमार सुरसुंदरी के साथ अपने महल में आया । वह गहरे सोच में डूब गया था। कपड़े बदलकर वह पश्चिम दिशा के वातायन में जाकर खड़ा रहा। ___ 'बड़े गंभीर सोच में डूब गये हो?' सुरसुंदरी ने पीछे से आकर मृदु-मधुर स्वर में पूछा। अमरकुमार सुरसुंदरी के सामने देखता ही रहा। 'कह दो न । जो भी मन में आया हो... कह दो' सुरसुंदरी का स्वर स्नेह में आप्लावित था। __ 'तू गुणमंजरी के साथ मेरी शादी करवाकर, इस संसार का त्याग करने का विचार तो नहीं कर रही है न?' अमरकुमार की आँखें गीली हो उठीं। उसका स्वर भी आर्द्र होता जा रहा था। 'नहीं... नहीं... ऐसी तो मुझे कल्पना भी नहीं आ रही है!! अभी आपका मोह... आपका अनुराग छूटा कहाँ है? इतने-इतने दुःख झेलने पर भी वैषयिक सुखों की इच्छा संपूर्ण विरमित' नहीं हो पायी है। हाँ, कभी-कभार वैराग्य के भाव उमड़ आते हैं मन के गगन में, पर वे भाव स्थिर नहीं रहते हैं।' 'यह निर्णय करते हुए तुझे डर नहीं लगा?' 'डर? काहे का?' 'गुणमंजरी के साथ शादी करके मैं तुझे शायद भुला दूँ तो?' For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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