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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर, जो था मन का मोर अमरकुमार मौन रहा कुछ पल कुछ सोचकर वह बोला : 'दूसरे आदमी को तो शब्दों से ही भरोसा दिया जा सकता है, महाराज! हृदय को तो बताया भी कैसे जाए ? परंतु महाराज, आप मेरी जिंदगी की निजी बातों में इतनी रूचि दिखा रहे हैं, वही मेरे लिए तो बड़ी बात है। मेरे पापों का फल तो मुझे यहीं पर मिल जाएगा... अब तो मुझे उसका दुःख भी नहीं होगा !' २७७ 'अमरकुमार, मैं तुम्हारी निजी जिंदगी में इसलिए इतनी रूचि दिखा रहा हूँ... चूकिं तुम्हारी पत्नी मेरे पास है... मेरी शरण में है !' अमरकुमार की आँखे आश्चर्य से चौड़ी हो गयी। वह खड़ा हो गया..... उसने विमलयश के दोनो कंधो को पकड़ लिया और कहा : 'महाराज, कहाँ है मेरी पत्नी...? कहीं आप मेरे जले घाव पर नमक तो नहीं छिड़क रहे हैं? महाराजा बताइए... मुझसे कहिए... मुझ पर कृपा कीजिए! मेरे महाराजा... दया कीजिए ... ' अमरकुमार फफक-फफककर रो पड़ा । विमलयश ने कहा : 'कुमार, तुम यहीं पर बैठो। मैं तुम्हारी पत्नी को कुछ देर में तुम्हारे पास भेज देता हूँ... परंतु अब मैं तुमसे फिर कभी नहीं मिलूँगा ।' विमलयश शयनकक्ष के समीप के कमरे में गया । पद्मासनस्थ बैठकर 'रूपपरिवर्तिनी' विद्या का स्मरण किया । और वह सुरसुंदरी बन गया । मंजूषा में से सुंदर वस्त्र - अलंकार निकाले । सोलह श्रृंगार सजाए... बैठकर श्री नवकार मंत्र का जाप किया। उसका दिल आह्लाद की अनुभूति से भर आया। और उसने जहाँ पर अमरकुमार बैठा हुआ था उस कमरे में प्रवेश किया । For Private And Personal Use Only फटी-फटी आँखों से... फड़कते हुए दिल से अमरकुमार ने सुरसुंदरी को देखा। दोनों के नैन मिले। अमरकुमार दरवाज़े की ओर दौड़ा... और दोनो हाथ जोड़कर सुरसुंदरी के चरणों में झुकने को जाता है... इतने में तो सुरसुंदरी ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए... उसे झुकने नहीं दिया.... अमरकुमार की आँखों में से आँसुओं के बादल बरसने लगे। दूर कहीं पर रात की खामोश हवा को थपथपाती हुई चौकीदार की 'सब सलामत' की ध्वनि कौंधी ... I R
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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