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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चोर, जो था मन का मोर 'प्रीत टूटी नहीं है... प्रीत तो अखंड है!' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ 'इसका सबूत क्या ?' 'मैंने अन्य किसी भी औरत के साथ शादी न करने का संकल्प किया है।' 'तो क्या तुमने बारह साल में किसी स्त्री के साथ शादी नहीं की है।' 'की भी नहीं है और भविष्य में करनेवाला भी नहीं हूँ !' 'तब तो तुम्हारी प्रीत सच्ची है, अमरकुमार ! एक बात पूछँ ? मान लो कि कोई आदमी तुम्हें तुम्हारी अपनी पत्नी के समाचार दे तो... क्या नाम बताया था तुमने अपनी पत्नी का?' 'सुरसुंदरी!' ‘वाह, कितना बढ़िया नाम है!' वह सुरसुंदरी जिंदा है और अमुक जगह पर है। तो क्या करोगे तुम?' 'महाराज, ये सारी बाते पूछकर अब आप मुझे क्यों ज्यादा दुःखी कर रहे हैं? वह जिंदा हो ही नहीं सकती ! उस यक्षद्वीप पर रात रहनेवाला सबेरे का सूरज देखता ही नही हैं कभी । ' 'फिर भी मान लो कि तुम्हारी पत्नी अपने पुण्य के बल से, उसके शीलसतीत्व के प्रभाव से जिंदा रही हो तो...??? जाकर ‘तो..... तो मैं अपना परम सौभाग्य मानूँगा... वह जहाँ पर भी हो..... उसके चरणों में सिर रख दूँ... क्षमा मागूँगा मेरे अपराधों की... पर वह सब कोरी कल्पना है, महाराज !!! 'यह तो अमरकुमार... तुम खुद अभी दुःख में फँसे हो... आफत में घिरे हो... इसलिए इतनी नम्रता बता रहे हो... ऐसा मानूँ तो ?' 'सही ख्याल है आपका ... आप मेरी बात सच मान ही नहीं सकते ? चूँकि मैं आपका गुनहगार हूँ न ?' For Private And Personal Use Only 'नहीं, ऐसा तो नहीं... तुम अपराधी हो इसलिए तुम्हारी बात गलत मान लूँ, वैसा मैं नहीं हूँ। पर आदमी का ऐसा स्वभाव होता है कि दुःख में नम्र रहता है... और दुःख के जाने पर फिर अभिमान का पुतला बन जाता है ! तुम अभी तो अपनी पत्नी से क्षमा माँगने की बात कर रहे हो... उसे याद कर करके आँसू बहा रहे हो... पर उसके वापस मिल जाने पर फिर से उसके साथ अन्याय नहीं करोगे, इसका क्या भरोसा ?'
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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